आरम्भ से पढ़ें शाम को जब हम नूरपुर से धर्मशाला पहुंचे तो केवल ने पूछा कि-"आपने कभी मोमो खाया है? मैने कहा नहीं। तो वह बोला चलो आज मोमो खाते हैं। तिब्बतियन स्पेशल है। मैने कहा- "देख रे भाई! मोमो के चक्कर में कहीं अंट-शंट खा लिया तो मुझे 2 हजार किलो मीटर से भी अधिक की यात्रा करनी है और बस भी नहीं रुकती रास्ते में।" मोमो की दुकान में पहुंच गए। पता चला कि मोमो 2 तरह के बनते हैं। वेज और नानवेज। हमने वेज मोमो का आर्डर दिया। नानवेज का क्या भरोसा? मोमो लाते तक मैं उसके विषय में तस्दीक करते रहा कि कैसे बनता है और उसमें क्या मसाला डाला जाता है।
मोमो का आर्डर आ चुका था। कुछ-कुछ गुझिया जैसी आकृति थी और गर्म था। इसे गुझिया जैसे बेल कर हरी सब्जी का मसाला भर दिया जाता है और फ़िर भाप में पकाया जाता है। साथ में लालमिर्च और लहसुन की चटनी के साथ परोसा जाता है। स्वाद तो अच्छा लगा। लेकिन मैदा की चिंता सदा रही थी, कहीं परेशानी का कारण न बन जाए। मोमो यहाँ समोसे जैसे फ़ास्ट फ़ुड के रुप में प्रचलित है। जहाँ थोड़ी भूख लगी और मोमो खा लिए। तिब्बती अपने साथ अपनी पाक कला भी लेकर आए। जो परम्पराएं तिब्बत में थी, उन्ही परम्पराओं में अभी भी जी रहे हैं। अब मोमो बनाने का काम भारतीय लोग भी करने लगे हैं, बड़े बड़े रेस्टोरेंट खोल कर मोमो और तिब्बतियन फ़ुड बेच रहे हैं।
मैं और केवल 1 मई शाम से 7 मई शाम तक साथ ही रहे। कभी नहीं लगा कि किसी अलग कुनबे-कबीले से हैं। अंतरताना माध्यम बना हम दोनो के रुबरु होने का। हँस-मुख स्वभाव होने के कारण केवल मनमोहन हो जाता है और मैं ललित ही रहता हूँ। मैं आस-पास को अच्छी तरह परखता हूँ। प्राकृतिक सौंदर्य में रम जाता हूँ बाकी सब भूल कर। समस्याओं की गठरी सर पर धर कर नहीं चलता। जहाँ का सामान था वहीं छोड़ दिया और आगे बढ लिए। समस्याएं तो हर जगह पर मिल जाती हैं और चिंता करने का सबब जब चाहे तब। यही मेरी यायावरी है। लोग भ्रम में रहते हैं कि वे दुनिया को चला रहे हैं। लेकिन जो दुनिया को चला रहा है वह जानता है कि यह कैसे चल रही है।
केवल का रुम अच्छी जगह है। सामने धौलाधार की बर्फ़ से आच्छादित पहाड़ियाँ और चारों तरफ़ हरियाली। पास ही बड़ा सा खेल का मैदान और रुम के सामने तैनात मालिक-ए-मकान का झबरीला स्वान। पहले एक दो बार तो देख कर गुर्राया। फ़िर पहचान लिया कि कोई मेहमान है जो रोज सुबह जाता है और शाम-रात को वापिस आता है। एक दिन सुबह मकान वाली अंटी जी ने चेरी लाकर दी। रंग तो उनका बहुत सुंदर था। कटोरी में उन्हे धोया और एक चेरी मुंह में डाली तो उसका स्वाद बहुत ही खट्टा था। उसे खाना मेरे तो बस की बात नहीं थी। केवल के हवाले कर दिया। चेरी मीठी हो तो उसका स्वाद ही कुछ अलहदा होता है। लेकिन रंग तो गजब का ही होता है।
रोज सुबह उठने के लिए घड़ी में अलार्म भरने की जरुरत नहीं थी। केवल के रुम के साथ ही मुर्गियों का दड़बा था। उसमें 20-25 तगड़ी-तगड़ी मुर्गियाँ थी। वे बांग देना शुरु कर देती थी। फ़िर दोपहर में भी बांग देती थी। मैने पूछा कि-क्या इनके लिए दो बार सवेरा होता है। सुना है कि जब मुर्गियाँ बीमार होती हैं तो बासते रहती हैं। केवल ने बताया कि दोपहर में अन्डे देने के बाद भी बांग देती हैं। मतलब ईमानदारी से मालिक को सूचित करती हैं, अन्डे बाहर आ गए हैं, फ़िर मत कहना कि बताया नहीं। जानवरों एवं पक्षियों में ईमानदारी होती है। चचा की मुर्गियां जैसे ये मुर्गियां चतुर चालाक बेईमान नही थी। एक आदमी ही बेईमान है जिसकी ईमानदारी कब फ़ना हो जाए उसका पता ही नहीं चलता।
अन्डे देने के बाद मालकिन मुर्गियों को आजाद कर देती थी। उनके लिए आंगन मे दाने बिखेर देती थी और उधर अन्डों को उठा लेती थी। मुर्गियाँ भी मालिक को पहचानती हैं। केवल मुझे कई दिनों से चिकन के लिए कह रहा था। इसको वो मुर्गियाँ भी सुन रही थी। जब भी यह बाहर निकलता इसे देख कर गुर्राने लगती थी। मैं मना कर देता था, अभी तो घास-फ़ूस ही खाने का मन है। मुर्गियाँ भी खुश थी। एक दिन केवल ने फ़िर पूछ लिया सुबह-सुबह और मैने भी हाँ कर दी। बस फ़िर क्या था। वो लाल वाली मुर्गी, जो मुर्गियों की सरदार थी। क्रोधित होकर मेरी ओर जोर से गुर्राई और मेरे कैमरे मे कैद हो गयी। मैने उसे आश्वस्त किया कि माल तुम्हारे दबड़े से नहीं आएगा, निश्चिंत रहो। केवल मार्केट से ही लेकर आएगा।
शाम को लौटते समय सब सामान साथ था बिरयानी बनाने का। बटर, दही, मसाला, चावल, मैजिक मुव्हमेंट, सोडा चखना इत्यादि। बिरयानी बनाने लगे। घन्टा लग गया बिरयानी बनाने में। गिरीश दादा बोले-"हमारे लिए थोड़ी चैट बाक्स में ही डाल दीजिए।" कभी-कभी बचपना कर ही जाते हैं। अब पराठे बनाने का नम्बर था। मैने कई लेयर वाला पराठा बनाना बताया केवल को। बस फ़िर क्या था, केवल ने वैसे ही देशी घी में कई पराठे बना डाले। सुबह के नाश्ते में भी वही पराठे बनाए। बहुत दिनों के बाद पसंदीदा पराठे खाकर आनंद आ गया। सुबह हुयी तो फ़िर वही मुर्गी सामने आ गयी। देख कर गुर्राई। मैने केवल से कहा कि अब इसका भी इंतजाम करना पड़ेगा। साला! कोई बेवजह हमें गुर्राए और उसे हम छोड़ दें ,कदापि नहीं । यह बेइन्साफ़ी नहीं हो सकती। मुर्गी ने सुन लिया, समझ गयी कि परदेशी को बिला वजह गुर्राना ठीक नहीं है। वरना खतरा हो सकता है। पता नहीं कब आधी रात को काम तमाम हो जाए।
अन्डों का रेट भी बहुत बढ गया है। मैने तो सोचा भी नहीं था कि 30 रुपये दर्जन होगें। सुनकर बड़ा झटका लगा। जब मैं कॉलेज में पढता था तो 3 रुपए दर्जन थे। एक दर्जन से तीन दिन का काम चल जाता था। सुबह बेकमेंस की ब्रेड के साथ आमलेट का नास्ता काफ़ी होता था। कभी सब्जी के भी काम आ जाते थे। जब वर्जिस करते थे और 3 घंटे रोज व्हाली बॉल की प्रैक्टिस, तो 1 दर्जन अन्डो की नित्य की खुराक थी। शाम को जब खेल कर वापस आता तो गोवर्धन आमलेट बनाकर और उबाल कर तैयार रखता था। उसके बड़े ग्राहक हम ही थे। उसके बाद आज तक कभी खरीदने की नौबत ही नहीं आई। क्योंकि खाए ही नहीं। जब से पढा कि इसमें "सालमोनेला" एवं "डी डी टी" होता है जो शारीरिक नुकसान करता है।
7 मई शाम को 6 बजे मेरी बस थी दिल्ली के लिए, जो मुझे 6 बजे आई एस बी टी पहुंचा देती। फ़िर वहाँ से शाम 5/25 को मेरी ट्रेन रायपुर के लिए थी। मैने अविनाश जी को मोबाईल पर कहा कि रविवार है और समय भी है कहीं बैठ कर गपिया लेते। बोले ठीक है, मैं फ़ोन करता हूँ। मैने निजामुद्दीन वाले पंडित जी को भी फ़ोन किया। केवल ने मुझे आराम करने कहा और नाश्ता करके कालेज चला गया। मै जब घर से चला था तो लाहौल स्पिति जाने की सोच रखी थी। अजय से बात करने पर पता चला कि रोहतांग पास अभी खुला नही हैं। 80 फ़ीट बर्फ़ जमी है। बी आर ओ बर्फ़ काट रहा है अभी एकाध हफ़्ता और लग जायेगा। मेरी योजना पर तुषारापात हो चुका था। फ़िर तय किया कि जुलाई में पांगी घाटी और लाहुल दोनो जगह जाएगें और ब्लॉगिंग पर एक कार्यशाला वहीं करेंगे।
दोपहर तक नेट पर गपशप होते रही। कुछ मित्र नित्य का हाल चाल ले लेते थे और सुबह-शाम श्रीमति जी भी। सभी से सम्पर्क बना रहा। दोपहर आकर केवल ने खाना बनाया, मैने खाना खा कर मुर्गियों से विदा ली। लाल वाली मुर्गी ने भी संतोष की सांस ली कि अब खतरा टल गया। परदेशी चला गया। रास्ते हमारे छत्तीसगढिया बंधु लोग पुन: मिल गए, हम बस स्टैंड पहुंचे। अभी बस नही आई थी। केवल ने 11 नम्बर की सीट बुक करवा रखी थी। यह सीट बस की सबसे अच्छी सीट होती है। सीट देखकर ही आनंद आ गया। केवल ने आगे के मार्ग की जानकारी दे दी थी कि कहां खाना खाना है और कहाँ लघुशंका की जगह मिलेगी। बस आ गयी, हमने सीट संभाली। देखा तो वही काणा कंडेक्टर था जो जिसकी बस में हम दिल्ली से आए थे और वही बस थी।
केवल से विदा लेना भी कठिन था। वह बड़े ही भावुक मन का है। उसकी भावुकता को मैं समझ रहा था। तभी बस में एकतारा बजाने वाला लड़का आ गया। उसने धुन बजाई और मैने रिकार्ड कर लिया। बस चल पड़ी, केवल कचहरी के समीप उतरा। मैने भी भारी मन से उसे छोड़ा। एक हरियाणवी फ़िल्म का गाना याद आ रहा था-"परदेशी की प्रीत की रे, कोई मत न करियो होड़, बनजारे की आग यूँ भई, गया सुलगती छोड़"। कुछ ऐसा ही घट रहा था। धर्मशाला में बिताए 6 दिन जीवन की धरोहर बन गए। रात को 9 बजे बस ढलियारा पहुंची। यहीं खाने का इंतजाम था। सभी यात्रियों को खाना खिला कर बस चल पड़ी। रास्ते में निर्मला कपिला जी गाँव आया नंगल। काफ़ी बड़ा गाँव है। नंगल देखकर निर्मला जी याद किया। चलो घर न देखा तो कोई बात नहीं पिंड तो देख लिया। कभी रब ने चाहा तो वो भी देख लेंगे।
मेरी बगल वाली सीट पर एक तिब्बती प्रोफ़ेसर थे। उन्होने धर्मशाला में ही टी शर्ट और हाफ़ पैंट पहन ली थी। उन्होने बताया कि पहाड़ों से नीचे आने पर गर्मी बढ जाती है, इसलिए हाफ़ पैंट पहन ली। मैने कहा-दिल्ली पहुंचकर तो यह भी उतारनी पड़ेगी हा हा हा"। उनसे तिब्बती संस्कृति के विषय में मुझे बहुत कुछ जानने मिला। नंगल के बाद झपकी आने लगी, पैर फ़ैलाकर सो गया। उन्ना में बस रुकी तब आँख खुली। उसके बाद अगला स्टापेज चंडीगढ था। एक झपकी के बाद हम दिल्ली पहुंच चुके थे। बस ने आई.एस.बी.टी. उतार दिया। मैने निजामुद्दीन के लिए मुद्रिका पकड़ी और निजामुद्दीन की ओर चल दिया। अविनाश जी की खबर नहीं आई थी। आगे पढें
शानदार यात्रा वृतांत |
जवाब देंहटाएंजी ललित भाई, निर्मला जी से मिले बिना चले आये ये ठीक नहीं किया, अब पता नहीं, कब मौका मिले,
जवाब देंहटाएंन तन भारी, न मन भारी.
जवाब देंहटाएंbhaaia momo to hm bi khaayenge yatraa snsmaran likhnaa to koi aap se sikhe bhai . akhtar khan akela kota rajsthan
जवाब देंहटाएंये गुर्राने और छोड़ न देने का कैप्शन देखकर इधर लपका -एक फायदा हुआ
जवाब देंहटाएंपहली बात जाना कि मोमो तिब्बतियन फ़ूड आईटम है -संस्मरण जोरदार है
Anurag Jagdhari-फ़ेसबुक से- "मैं आस-पास को अच्छी तरह परखता हूँ। प्राकृतिक सौंदर्य में रम जाता हूँ बाकी सब भूल कर। समस्याओं की गठरी सर पर धर कर नहीं चलता। जहाँ का सामान था वहीं छोड़ दिया और आगे बढ लिए। समस्याएं तो हर जगह पर मिल जाती हैं और चिंता करने का सबब जब चाहे तब। यही मेरी यायावरी है। लोग भ्रम में रहते हैं कि वे दुनिया को चला रहे हैं। लेकिन जो दुनिया को चला रहा है वह जानता है कि यह कैसे चल रही है।"-
जवाब देंहटाएंbahut achha laga
बहुत मज़ा आया.आपको तो घर जाने की जल्दी थी और हमारा मन कहता था कि आपकी यात्रा ख़त्म ही ना हो.मन करता है कि जल्दी ही धर्मशाला जाऊं और केवल जैसे साथी का साथ पाऊँ ..
जवाब देंहटाएंऔर ये मुर्गी का गुर्राना भी बड़ा मजेदार लगा
जवाब देंहटाएंबढ़िया हैं ललित भाई मैं तो शीर्षक पढ़कर कुछ और ही समझ बैठा था...यात्रा का आनंद ऐसे ही उठाते रहिये और हमसबको भी बताते रहिये.....
जवाब देंहटाएंललित भईया ,ऊपर वाले के लिए तो ये दुनिया बहुत ठेले ठेले चल रही है,और हमारे लिए ये भागे जा रही है.
जवाब देंहटाएंबहुत मस्त वृतांत रहा...काफी दिन गुजार आये आप धर्मशाला में...चलो, बढ़िया है...गर्मी से बचे रहे उतने दिन.
जवाब देंहटाएंअब दिल्ली का हाल सुनायें.
बढ़िया यात्रा विवरण.... शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंपहले तो मैं समझा था कि मोमो बनाने के लिये किसी का प्रयोग कर लिया गया है, लेकिन बाद में तो मामला ही कुछ और निकला.
जवाब देंहटाएंरोचक वृत्तांत...निर्मला जी से मिलकर आना चाहिए था
जवाब देंहटाएंआखिर बेचारी मुर्गी बच ही गयी। बड़ा अच्छा रहा संस्मरणात्मक यात्रा वृतान्त।
जवाब देंहटाएंअब मजा आया बिना टिकट घूमे भी और खाने का स्वाद भी लिया
जवाब देंहटाएंलोग भ्रम में रहते हैं कि वे दुनिया को चला रहे हैं। लेकिन जो दुनिया को चला रहा है वह जानता है कि यह कैसे चल रही है।
जवाब देंहटाएंयात्रा वृतांत के साथ-साथ बहुत ही बेहतरीन सीख भी दे दी आपने..
प्रेमरस.कॉम
ठीक किया आपने उसकी गुर्राहट का त्वरित जबाब दिया .... मस्त आलेख
जवाब देंहटाएंआपकी इस यात्रा के हर एक अंक को पढ़ा है मैंने!अलग-अलग कारणों-वश मई वह प्रतिक्रिया नहीं दे पाया!आज जब इसका अवसर मिला तो पाया के आपकी यात्रा सुखद अनुभवों के साथ संपन्न हो चुकी है!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया यात्रा वृत्तांत आपने प्रस्तुत किये इस यात्रा के दौरान,हमें भी ऐसा लगता रहा जैसे आपके साथ साथ हम ही घूम रहे हो....
कुँवर जी,
आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
जवाब देंहटाएंचिट्ठे आपके , चर्चा हमारी
बहुत मज़ा आया....बेहतरीन यात्रा वृतांत
जवाब देंहटाएंशीर्षक पढ़कर लगा कि शेर सिंह ने कर डाला कोई शिकार । लेकिन आपने तो एक चींटी भी नहीं मारी ।
जवाब देंहटाएंहा हा हा ! अच्छा किया छोड़ दिया बेचारी मुर्गी को । उसका मुर्गा दुआएं देगा ।
हमने मोमो पहली बार दस साल पहले खाए थे । आजकल तो सब जगह मिलते हैं ।
धर्मशाला और केवल वृतांत बढ़िया रहा ।
तभी बस में एकतारा बजाने वाला लड़का आ गया। उसने धुन बजाई और मैने रिकार्ड कर लिया............. कि घर आजा परेदेशी......... वाह गजब के धुन बजाईस ग बाबू ह, मन ल भावत हे आपके घुमई किंजरई ..
जवाब देंहटाएंmomo ka swad bahut bekar he laga mujhey .....aapko kaisa laga.....................kahir aapki yatra ne hamari bhi yatra kara di.......rochak vritanat
जवाब देंहटाएंलोग भ्रम में रहते हैं कि वे दुनिया को चला रहे हैं। लेकिन जो दुनिया को चला रहा है वह जानता है कि यह कैसे चल रही है ....
जवाब देंहटाएंये मुर्गियां चतुर चालाक बेईमान नही थी। एक आदमी ही बेईमान है जिसकी ईमानदारी कब फ़ना हो जाए उसका पता ही नहीं चलता।
रोचक वृतांत ..
बहुत अच्छी लगी आपकी यात्रा जो सुन्दर चित्रों और शब्दों के माध्यम से आपने दिखाई .... अच्छी जानकारियों और सीखों से भरी सुन्दर यात्रा.... शुभकामनायें.....
जवाब देंहटाएंलोग भ्रम में रहते हैं कि वे दुनिया को चला रहे हैं। लेकिन जो दुनिया को चला रहा है वह जानता है कि यह कैसे चल रही है
जवाब देंहटाएंएक सम्पूर्ण वृतांत.
लच्छा परांठा, मोमो ,चिकन ,बिरयानी.
भावुक केवल, और गुर्राती मुर्गी, एकतारा ,और सुन्दर दृश्य.
सारे मसाले हैं पोस्ट में ..यानि कि एकदम हिट फिल्म.
अरे अरे मुझे तो इस केवल का फ़िक्र हे बडा सीधा साधा बच्चा हे ओर यह खागड के संग कही बिगड ना जाये :)
जवाब देंहटाएंमुझे 2 हजार किलो मीटर से भी अधिक की यात्रा करनी है और बस भी नहीं रुकती रास्ते में।" हा हा हा
जवाब देंहटाएं'केवल मनमोहन हो जाता है और मैं ललित ही रहता हूँ' किसने कहा ?आधा झूठ.केवल मनमोहन हो जाता है और आप?????ललित भैया हम सबके भैया ....
एक आदमी ही बेईमान है जिसकी ईमानदारी कब फ़ना हो जाए उसका पता ही नहीं चलता।' सच बोले भाई !
अच्छा ! तो मुर्गी गुर्रायी थी मैंने सोचा.....किसी से पंगा हो गया है.हा हा हा डरा देते हो सच्ची!
पराठे देख कर तो अब केवल के यहाँ जा कर उसके हाथ के बने पराठे खाने का मन कर रहा है. वाह मुंह में पानी आ गया सच्ची.ऐसा लिखते हो दुष्ट हो.पूरा रेखाचित्र खींच देते हो.
ये लिखते लिखते कोलेज के दिनों में कैसे घुस गए. हैं?
एकतारे की धुन अच्छी लगी और ...हरियाणवी गाने के बोल भी.केवल सचमुच बहुत भावुक और साफ़ दिल का लड़का है .बहुत ही प्यारा.बहुत ही सुन्दर शब्दों में उसके व्यक्तित्त्व के बारे में लिखा है.
'मैने कहा-दिल्ली पहुंचकर तो यह भी उतारनी पड़ेगी हा हा हा"।' हा हा हा दुष्ट ! बेचारे तिब्बती को तो बक्श देते .
मजा आ गया भई पढ़ कर...अगली किस्त और लिखेंगे या बस? लिखते रहिये.यात्रा वृत्तांत लिखने में माहिर हैं आप.
यह पोस्ट अच्छी रही .. यात्रा के साथ साथ खाना पीना भी चलता रहा .. वरना दो तीन दिनों से भूखे प्यासे आपके साथ भूगोल , इतिहास , पुरातत्व और समाज शास्त्र पढते थक ही चुके थे !!
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर! मज़ा आ गया.... यात्रा वृतांत पढ़ कर।
जवाब देंहटाएं=====================
’व्यंग्य’ उस पर्दे को हटाता है जिसके पीछे भ्रष्टाचार आराम फरमा रहा होता है।
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
बहुत सुन्दर वर्णन ये शहर देखा हुआ है तो समझने में समय भी नहीं लगा पर आपकी एक बात बहुत खुबसूरत लगी वो ये की ..........समस्याएं तो हर जगह पर मिल जाती हैं और चिंता करने का सबब जब चाहे तब। यही मेरी यायावरी है। लोग भ्रम में रहते हैं कि वे दुनिया को चला रहे हैं। लेकिन जो दुनिया को चला रहा है वह जानता है कि यह कैसे चल रही है। ये बात सच में दिल में बहुत सही लगी |
जवाब देंहटाएंमजेदार यात्रा का वर्णन ........खास कर मुर्गी वाला किस्सा खासा अच्छा है ...
जवाब देंहटाएंबहुत मज़ा आया पढने में ...आपकी यात्रा का वर्णन
कल ही मोमो खाया है, पर पहला धर्मशाला में खाया था।
जवाब देंहटाएंमजेदार यात्रा का वर्णन, शानदार प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
यात्रा वृतांत पढ़ने का आनन्द तभी है जब पढ़ने वाले को ऐसा महसूस हो कि वह यात्री के सन्ग सन्ग चल रहा है । हमने कुछ ऐसा ही महसूस किया ।
जवाब देंहटाएंट्रेवालौग बहुत अच्छा लिखा है आपने.... केवल से दिल्ली में मिला था.... बहुत कम लोग केवल जैसे होते हैं जो मन को छू लेते हैं... परांठे देख कर मूंह में पानी आ गया... मैं तो यह सब खा ही नहीं सकता... बहुत मुश्किल से एक्सीडेंट के बाद वज़न कम किया है... और ऊपर से फिटनेस का ख्याल रखना पड़ता है... हाँ! चूंकि बौडी बिल्डर हूँ.... और हाई प्रोटीन मेरी ज़रूरत है.... तो दिन में पच्चीस से तीस अंडे खा जाता हूँ.... अंडे में सालमोनेला और डी.डी.टी. नहीं होता है ... यह सब अफवाह हैं.... और इस टाईप की न्यूज़ अखबार में सबसे लास्ट पन्ने पर ही होती है... अब तो दारा सिंह भी कहता है... रोज़ खाओ अंडे... वैसे आपको मानना पड़ेगा... और आपका पर्ज़िवरेंस आपके ट्रावेलौग से ही पता चल जाता है.. और कितनी सहज .... मेरा मतलब नोर्मल तरीके से आप अपनी बात कह देते हैं... अब लखनऊ आने का प्रोग्राम बनाइये...
जवाब देंहटाएंकेवल पराठे बहुत अच्छा बनाते हैं ...अब बिरियानी की फोटो तो है नहीं, वो भी मांसाहारी ही बनाई होगी ...नॉनवेज अच्छा हो या कच्चा, दूर से प्रणाम !
जवाब देंहटाएंमोमो आजकल यहाँ भी लोकप्रिय हैं ...कुछ दिनों पहले मैंने घर में बनाया अपने पसंद की फिलिंग के साथ !
बेचारी मुर्गियों पर बड़ा मानसिक जुल्म ढाया आपने ...
लम्बी यात्रा का विस्तृत वर्णन रोचक है ...
kaafi maje le rahe ho lalitji!!!
जवाब देंहटाएं@वाणी गीत
जवाब देंहटाएंनहीं जी, बिरयानी शाकाहारी बनाई थी। वो तो मैं मुर्गियों को डरा रहा था। :)
आपने भी बच्चे को पिटवाने वाला सवाल किया है। हा हा हा
@महफूज़ अली
जवाब देंहटाएंअगले महीने लखनऊ ही आ रहे हैं।
एकाध महीने रहकर बॉडी बनाना है 8 पैक वाली, तुम्हारे साथ :)
ढलियारा से मेरा ननिहाल बहुत पास है, ब्यास के किनारे. नंगल, मेरे ख़्याल से टाउनशिप है जो लगभग किसी बड़े शहर सा कहलाने के मुहाने पर खड़ा है, ये गांव नहीं :)
जवाब देंहटाएंललित जी अच्छा यात्रा संस्मरण....
जवाब देंहटाएंआपने एक बार फिर यादें ताजा कर दी मोमो की
...
सच में ठंड के मौसम में वहां गर्मागर्म मोमो का स्वाद ही निराला है
ललित जी मै तो आपसे नाराज़ हूँ\ जहाँ से अजौली मोड आपकी बस निकली वहाँ से महज़ पैदल 5 मिन का रास्ता है। आप फोन कर देते़ वहीं से आपको फिर बस मिल जानी थी\ वैसे नंगल से रात को त्रेन भी चलती है। हैरान हूँ कि आप कैसे चुप चाप निकल गये कम से कम फोन तो कर ही सकते थे। नानवेज नही तो दाल फुलका तो मिल ही जाता। आगे से ऐसी गलती कभी मत करियेगा। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंNangal is a city not village.
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