बुधवार, 25 जनवरी 2012

मुर्दों के जीवित शहर लोथल (લોથલ) में एक दिन ---- ललित शर्मा

लोथल का आसमानी चित्र
लोथल (લોથલ) ​का उत्खनित स्थल संग्रहालय से थोड़ी दूर पर ही है। मुख्यद्वार से प्रवेश करने पर सामने एक गोदी नुमा संरचना दिखाई दी। वहाँ से हम आगे बढ लिए, जिस बंदे से हमें मुलाकात करके इस बंदरगाह के विषय में जानना था वह नगर की बसाहट के नीचे की तरफ़ था। वहाँ पहुंचने पर देखा कि कुछ लोग घास काट रहे हैं। बरसात के समय बड़ी बड़ी घास उग आई थी। वहीं आवाज देने पर विपुल नामक बंदा टोपी लगाते  हुए आया। उसने बताया कि वह यहां का चौकीदार है, जो भी पर्यटक आते हैं उन्हे वही लोथल (લોથલ) नगरी की सैर कराता है। मकवाना के फ़ोन के बारे में पूछने पर उसने बताया कि उनकी मिस कॉल आई थी, पर यह नहीं बताया कि कोई आ रहे हैं उत्खनित स्थल पर। चलो कोई बात नहीं, भ्रमण किधर से शुरु किया जाए। उसने निचली बस्ती से यात्रा प्रारंभ करवाई। मोहन जोदरो एवं हड़प्पा में मानव सभ्यता के प्राप्त होने पर इसे सिंधु घाटी सभ्यता का नाम दिया। जब इस काल की सभ्यता के चिन्ह अन्य जगहों पर मिलने से इसे सैंधव सभ्यता कहा जाने लगा। लोथल दुनिया भर के पुराविदों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। प्राचीन सभ्यता  को देखने जिज्ञासु यहाँ आते ही रहते हैं।

लोथल की बसाहट (चित्र गुगल से साभार)
इसकी खोज 1954 में हुई थी, यह अहमदाबाद शहर से 83 किलोमीटर पर स्थित है। लोथल में उत्खनन का कार्य सन १९५५ से १९६२ के वर्षों में आर्कियोलाजिकल सर्वे ओफ इंडिया के विख्यात पुरातत्त्वविद डॉ. एस रंगनाथ राव के नेतृत्व में किया गया था। जैसा कि पाया जाता है यहाँ पर भी एक बड़ा टीला था। यह टीला खंभात की खाड़ी से 18 किलोमीटर पर स्थित है। लोथल शब्द से जैसे जाहिर होता है लोथ, लोथड़ा। मृत्यु के पश्चात शरीर लोथड़ा हो जाता है। किसी प्राकृतिक आपदा के कारण यह नगर मुर्दों के टीले में तब्दील हो गया। इसलिए स्थानीय लोग इसे लोथल के नाम से संबोधित करने लगे होगें। मोहन जोदरों  का अर्थ भी मुर्दों का टीला ही किया गया। जहाँ कभी आपदा के कारण नगर नष्ट हो जाते थे वहाँ  दुबारा नगर बसाए जाने पर मुर्दे ही मिलते थे। शायद इसीलिए इन स्थानों का नामकरण मुर्दों से संबंध रखता है।

विनोद गुप्ता जी, विपुल और गड़े मुर्दे उखाड़ने वाला
सम्पूर्ण नगर चार दीवारी से घिरा है। चार दीवारी के भीतर ही सभी संरचनाएं प्राप्त होती हैं। विपुल भाई टोपी संभालते जाते हैं और बताते जाते हैं। इधर श्मशान है, वहाँ से कंकाल मिले हैं। इधर नगर के बड़ेरे लोगों का घर है। एक बडी सी घर की संचरना की ओर इशारा करके बताते हैं। हम आगे बढते हैं तो एक कुंआ नजर आता है। नगर में पीने के जल के लिए संभवत: इसका उपयोग किया जाता होगा। नगर में गंदे पानी की निकासी के लिए नालियों की समुचित व्यवस्था नजर आ रही थी। चौड़े रास्ते हैं नगर निवेश की चुस्त दुरुस्ती दिखाई दे रही थी। यहाँ से प्राग ऐतिसाहिक काल से बहुत से मिट्टी के बर्तन मिले हैं। जब यह नगर अपने उत्कर्ष पर था तब इसके समीप से साबरमती नदी एवं भोगोवो नदी बहा करती थी। उनके जल से यहाँ निर्मित गोदी में भराव होता था तथा मालवाहक नौकाएं गोदी में आकर लगती थीं। जिनसे सामान उतार कर गोदी के सामने बने गोदामों में रखा जाता था।

निचली बस्ती की बसाहट
लोथल नगर का वर्तमान विस्तार 580X300 मीटर का है। लेकिन नगर के आकार को देख कर लगता है कि भूतकाल में यह अधिक रहा होगा। एक पूर्ण विकसित समृद्ध नगर का आकार इतना छोटा नहीं हो सकता। उत्खनन में प्राप्त जानकारी से इस बस्ती के तीन स्तरों का पता लगा। सबसे नीचे वाले स्तर में मकान जमीन से ही बनाए गए थे। लगभग 2350 ई पू  बाढ का पानी भर जाने से यह नगरी डूब गयी। पुन: बसाहट होने पर बाढ से बचाने के लिए समुचित उपाए किए गए। नगर को बाढ से बचाने के लिए चारों तरफ़ कच्ची ईंटो की दीवार बनाई गयी। चौड़ी सड़कों से छोटी गलियां भी निकलती हैं। सड़के के दोनो ओर मकानों की बसाहट है। सभी मकानों में स्नानगृह एवं जल निकालने के लिए मोरी की व्यवस्था नजर आ रही थी। 

धातु गलाने की फ़ाउंडरी
नगर के दक्षिण पूर्व में शासक का बड़ा आवास भी मिला है। जिसमें पानी निकलने के लिए बड़ी मोरियां बनी हुई हैं। आवास का प्लेट फ़ार्म भी अन्य आवासों से ऊंचाई लिए हुए है। उसके सामने ही बर्तन पकाने की बड़ी भट्ठी भी मिली है। विपुल उसे गलाई कारखाना (फ़ाउंडरी) बता रहा था। मिट्टी में धातुओं की पहचान करके उसे निकालने की विधि जानना उस समय का क्रांतिकारी अविष्कार रहा होगा। उन्होने बड़ी तकनीक विकसित करके तांबा, लोहा मिट्टी से पृथक किया होगा तदुपरांत उससे बर्तन, मूर्तियाँ, मुहर, सिक्के आदि ढाले होगें। यहाँ भी धातुओं से निर्मित सामग्री प्राप्त हुई है। जिससे जाहिर होता है कि लोथल में धातुओं से निर्मित सामग्री का उपयोग होता था।

डॉक यार्ड पर विनोद गुप्ता जी
लोथल के पूर्वी छोर पर निचले भाग में एक आयताकार संरचना में पानी भरा हुआ था। हम उसके पास पहुंचे तो विपुल ने बताया कि यहाँ पर नाव आकर रुकती थी, उससे सामान उतार कर सामने गोदाम में रखा जाता था। वैसे यह गोदी जैसी संरचना काफ़ी बड़ी है। जानकारी लेने पर पता चला कि इसकी पश्चिमी दीवार 212 मीटर, पूर्वी दीवार 209 मीटर, उत्तरी दीवार 36 मीटर और दक्षिणी दीवार 34 मीटर लंबी है। दीवारों की अधिकतम ऊंचाई 4 मीटर है। उत्तरी दीवार में 12.5 मीटर चौड़ा प्रवेशद्वार है। ज्वार-भाटे के समय इस द्वार से जलपोत भीतर घुसते थे। रेत भर जाने से जब नदी का प्रवाह बदल गया, तब पूर्वी दीवार पर 6.5 मीटर चौड़ा एक दूसरा द्वार बनाया गया। इस गोदी में पानी के घटाने एवं बढाने की व्यवस्था है। एक तरफ़ ओव्हर फ़्लो बनाया गया है। जो पूर्व से पश्चिम की ओर छोटी नहर से जाकर फ़िर नदी में मिल जाता है। 

नगर क्षेत्र में विनोद गुप्ता जी एवं कुशवाहा जी
संग्रहालय में देखने से पता चलता है कि यहाँ अनेक मुद्राएं प्राप्त हुई, इन मुद्राओं और मुहरों का ऐतिहासिक महत्व है। ये पत्थर, पकी हुई मिट्टी अथवा तांबे की हैं। बहुत सी मुद्राएं चौरस आकार की हैं, लगभग 2.5 से 2.5 सेंटीमीटर की। इनके एक ओर बैल, हाथी, बाघ आदि कोई पशु का चित्र बना है और दूसरी ओर कुछ अक्षर कुरेदे गए हैं। एक मुद्रा में तीन-चार पशु दिखाई देते हैं। बहुत-सी आयताकार मुद्राएं भी मिली हैं। इनमें केवल लिखावट है। ये सब मुद्राएं हड़प्पा-मोहेंजोदड़ो से मिली मुद्राओं जैसी ही हैं। इन मुद्राओं पर अंकित अक्षरों को अब तक पढ़ा नहीं जा सका है। बाजार क्षेत्र में कई सार्वजनिक स्नानागार बने हैं तथा इस इलाके में एक कुंआ भी है। साथ पीने के पानी को छानने का एक यंत्र भी बना देखा। जिसमें दो घड़े लगे हुए हैं। उपर के घड़े में पानी डालने से नीचे के घड़े में स्वच्छ पीने का पानी उपलब्ध हो जाता था। लोथल से प्राप्त होने वाला मछली पकड़ने कांटा ठीक वैसा ही है जैसा आज भी प्रचलन में है।

प्राचीन कुंए की बनावट पर गंभीर मशविरा
जब हम श्मशान की ओर जाना चाहते हैं तो विपुल कहता है कि उधर जाने का रास्ता साफ़ नहीं है। यहाँ से जो भी सामग्री मिली है, वह सब संग्रहालय में रखी है। हमने संग्रहालय से जो भी किताबें खरीदी उससे हमें जानकारी लेने में सहायता हुई। लगभग 2 घंटे लोथल बंदरगाह के उत्खनित स्थल पर बिताने के पश्चात हम वापस संग्रहालय की तरफ़ पहुंचे। वहाँ पहुंच कर आस-पास मौजूद अन्य स्थलों के विषय में जानकारी ली तो पता चला कि समीप ही लगभग 8 किलोमीटर उतेलिया पैलेस है। वहाँ पर खाने की व्यवस्था भी हो जाएगी। उतेलिया पैलेस के रास्ते में खाली जमीन पर हमें नमक जमा नजर आता है। यह स्थान गुजरात के नक्शे में समुद्र के किनारे है। अगर गुजरात के मैप मे देखे तो हमें एक पतली सी धार दिखाई देती है। यह समुद्र इस धारा के रुप में लोथल के समीप पहुंच जाता है। हमें उतेलीया पैलेस देखने की प्रबल इच्छा हो रही थी। लोथल देखने की बरसों की इच्छा पूरी कर हम उतेलिया पैलेस की ओर बढ रहे थे …………आगे पढें

17 टिप्‍पणियां:

  1. हमारे पूर्वजों का समुन्नत इतिहास..गर्व होता है..

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  2. लोथल हमने तो बस किताबों में ही पढ़ा था आपने सैर भी करवा दी. धन्यवाद आपका.

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  3. इतनी अच्छी जगह की सैर करवाना अपने आपमें में ही खुशनसीबी हैं वर्ना लोग आजकल यहाँ जाते कहा हैं ...कुछ शोकीया आप जैसे ही हैं जो ऐसी जानकारी दे पाते हैं ..धन्यवाद !

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  4. विस्तृत ऐतिहासिक जानकारी और जीवंत चित्रों(live pictures) के लिए बहत-बहुत आभार...

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  5. बहुत काम की जानकारी। हमारा भी मन हो गया लोथल की सैर करने को।

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  6. आश्चर्यजनक और अद्भुत थी हमारी विकसित सभ्यता!!

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  7. इस आलेख से लोथल को संजीवनी मिल गयी. "इस गोदी में पानी के घटाने एवं बढाने की व्यवस्था है" - वह भी उस काल में. परमाश्चर्य.

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  8. बस पढ़ रहे हैं और गर्वित हो रहे हैं.

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  9. आप इतनी अद्भुत जगहों की सैर करा रहे हैं। पढते हुए लगता है वहीं घूम रहे हों।
    आभार।

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  10. यह जानक्र बहुत अच्छा लगा कि आप लोथल घूम आये । यह चित्र भी अद्भुत हैं । आपको शरद कोकास की लम्बी कविता ' पुरातत्ववेत्ता ' पढ़नी चाहिये ।

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  11. ऐतिहासिक जानकारी वो भी चित्रों के साथ .....बहत-बहुत आभार...ललित जी

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  12. स्वयम जाकर तथ्यो का निरीक्षन करने से ही असल बात पता चलती है. जितने मुह उतनी बाते.
    आभार

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  13. लोथल के बारे में बेहद रोचक लगा पढ़ कर ,अब तक सिर्फ कोर्स की किताबो में जितना पढ़ा था उतना ही जानती थी ,बेहद धन्यवाद

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