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जल और थल दोनों में घोंघा पाया जाता है। अपनी मंथर गति के कारण यह अमेरुदण्डिय निशाचर प्राणी नौ दिन चले अढाई कोस वाली कहावत को चरितार्थ करता है। व्यंग्यकारों ने भी इसके नाम को खूब भंजाया, इसकी आड़ में कई व्यंग्य लिखे गए। नाम व्यंग्यकारों ने कमाया, बदनाम घोंघा बसंत जी हुए। इसीलिए कहते हैं माल खाए गंगा राम और मार खाए मनबोध। गौर करें तो घोंघा बसंत किसी मनबोधी से कम नहीं है। जब मन आया तो चल पड़े, जब मन आया तो अपने महल के भीतर आराम किए। कहते हैं कि इनकी वृद्धि बड़ी तेजी से होती है। ये उभयलिंगी भी होते हैं। जब मन में आया तो स्त्री बन गए, जब किसी को गरियाना हो तो इनका पुरुषतत्व जाग उठता है। टू इन वन जैसी ही बात है, कभी रेडियो चला तो कभी टेप रिकार्ड प्ले कर लो।
घोंघा बसंत! हाँ गुरुजी यही कहते थे। पढाने के बाद भी अगर कोई विद्याथी उनके प्रश्न का जवाब नहीं दे या फ़िर सवाल हल करने में अक्षम रहे तो गुरुजी उसे सार्वजनिक रुप से घोंघा बसंत की उपाधि से नवाजकर सम्मानित करते थे। कक्षा में प्रतिवर्ष 2-4 घोंघा बसंत विरासत के तौर मिल जाते थे। हमारे सहपाठी घोंघा बसंत पिछली कक्षा में छूट जाते और अगली कक्षा में छूटे हुए मिल जाते। तब हमें यह न मालूम था कि गुरुजी ठस बुद्धि विद्याथियों को घोंघा बसंत क्यों कहते हैं। शंख जैसे छोटे से खोल में रहने वाला लिजलिजा प्राणी घोंघा कहलाता है यह हम जानते थे। हम आगे की कक्षाओं में बढते बढते इतने आगे बढ गए कि आज तक मुड़कर पाठशाला का मुंह नहीं देखा। कुछ सहपाठी घोंघा बसंत वर्तमान में सरकारी नौकरियों में लग कर धरा को धन्य कर रहे हैं।
सिरपुर के घोंघा बसंत (फ़ोटो-ललित शर्मा) |
इस लिजलिजे प्राणी को देखने से जुगुप्सा होती है पर दिखने में बहुत सुंदर है। इसके सिर पर खड़े दो सींगों से लगता है कि कोई एलियन (परग्रही प्राणी) है। परंतु प्रकृति का अद्भुत निर्माण है कि इसके सींगों पर दो आँखों के साथ रिसिवर के रुप में दो एंटीना लगे हुए हैं। जिससे यह देखने एवं सुनने का दोनो काम कर सकता है। कहें तो प्रकृति का बनाया हुआ वायरलेस सेट या रेडियो जैसा उपकरण इसके सींगों में रोपित है। रीढ विहीन इस प्राणी को पटकने के बाद भी इसकी मौत नहीं होती। कठोर आवरण इसकी सुरक्षा करता है। सिरपुर के मार्केट काम्पलेक्स में कदम रखते ही सर्वप्रथम घोंघा बसंत से ही मुलाकात हुई। जनाब खरामा-खरामा टहलते हुए सुबह की सैर को निकले थे। तभी इनसे भेंट हो गयी। एक अरसे के बाद घोंघा बसंत से मुलाकात होने पर मन प्रसन्नता से भर गया। झट से घोंघा बसंत की उपाधि देने वाले गुरुजी याद आ गए।
कठोर आवरण में रहने के कारण यह सभी खतरों से महफ़ूज रहता है। बिगड़े हुए मौसम का इस पर कोई असर नहीं पड़ता। मान लिया जाए कि यह एक ढीठ प्राणी है। घोंघा की इसी प्रतिभा से कायल होकर ही गुरुजी ने ढीठ विद्यार्थियों के लिए "घोंघा बसंत" जैसी विशिष्ट उपाधि का सृजन किया होगा। इस तरह से ढीठ विद्यार्थियों के लिए घोंघा बसंत एक आदर्श उपाधि है तथा वर्तमान में भी प्रचलन में है। जब मनुष्य अपनी मर्जी से चलता है, किसी के कहे का उस पर कोई असर नहीं होता तो उसे घोंघा प्रवृति कहा जाता है। कार्टुनिस्ट केशव शंकर पिल्लई ने तो व्यंग्य चित्र द्वारा इसे संविधान और माननीय नेताओं से भी जोड़ दिया था। जिस पर बहुत हंगामा हुआ था।
सिरपुर के घोंघा बसंत (फ़ोटो-ललित शर्मा) |
शारीरिक संरचना की विशिष्टता देखने के पश्चात मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि घोंघा बसंत वर्तमान में घुमक्कड़ों के लिए एक योग्य आदर्श हैं। व्हेनसांग से लेकर हमारे तक घुमक्कड़ी में प्रमुख रुप से आवास एवं जान-माल की सुरक्षा की समस्या होती है। अनजान जगहों पर सबसे पहले ऐसा ठिकाना ढूंढना पड़ता है जहाँ जान माल की सुरक्षा के साथ रात गुजारने के लिए आवास की व्यवस्था हो जाए। घोंघा बसंत के समक्ष ये समस्याएं नहीं है। न कहीं टेंट ढूंढने की जरुरत न कहीं होटल में कमरा तय करना पड़ता। यह खानाबदोश प्राणी है। खानाबदोश उसे कहते हैं जिसका घर कांधे पर हो। घोंघा बसंत का घर कांधे पर है जब चाहे तब भीतर घुस कर ढक्कन बंद करले और चैन की नींद ले। अपनी सुरक्षा अपने हाथ, खाना-पीना-घूमना सबके साथ।
घोंघा बसंत का घर भी इतना सुरक्षित है कि आंधी, तूफान, बर्फबारी आदि का कोई असर ही नहीं होता। बोले तो एकदम फुल प्रूफ, ऐसे ही एक आवास कि जरुरत मुझे पड़ जाती है कभी-कभी घुमक्कड़ी के दौरान। काश! भगवान ने घुमक्कड़ों की पीठ पर ऐसा ही घर बना दिया होता तो सारी समस्याओं का समाधान हो जाता। यह तो तय हो गया कि घोंघा बसंत भी बड़े काम की चीज है। हो सकता है इंसान ने इससे ही प्रेरणा लेकर घुमक्कड़ों के लिए पिट्ठु बैग का निर्माण किया हो। अपना सामान खुद उठाओ और रास्ते लगो। इसलिए घोंघा बसंत की उपाधि धारण करने में कोई उपहास या बुराई नहीं है। अब तो मानना ही पड़ेगा कि गुरुजी सही कहते थे। जारी है …… आगे पढें
बड़ी कुशलता से जानकारी देते हैं आप... गुरूजी ठीक ही कहते थे...:)
जवाब देंहटाएंदूसरे काम कीजिए ... घुमक्कडी छोड दीजिए ..
जवाब देंहटाएंईश्वर ने आपको घुमक्कडी के लिए बनाया होता तो पीठ पर घर न बना दिया होता !!
जितनी सुविधाएं जानवरों को मिली है .. कुछ भी मनुष्य को नहीं मिली ...एक दिमाग देकर अन्य शारीरिक विशेषताओं की छुट्टी कर दी ईश्वर ने ..
जवाब देंहटाएंएक धोँधा और होता हैँ गोल रहता हैँ जो कि देशी हैँ ये विदेशी आईटम जैसी हैँ तो मै कह रहा था य भी इसकी जितनी या इससे बडी होती हैँ मुँह गोल रहता हैँ एक कडक खोल मुह पर रहता हैँ जो कि अंदर धुसनेँ पर सुरक्षा का काम करती हैँ मतलब दरबाजा यह रुका या गंदे पानी के साथ बरसाती पानी मेँ हैँ इसे गाँव के लोग खातेँ भी हैँ इसका उपरी खोल संख जैसा होता हैँ खानेँ स्वाद मटमैला मतलब मट्टी जैसा यानी कलेजा जैसे मुरगा या बकरा के कलेजा जैसा खाने मेँ लगता हैँ मैँ पाँच साल मेँ दो बार खाया अब और क्या बताउँ कुछ बचा नही ।
जवाब देंहटाएंअच्छा ज्ञानवर्धन हुआ।
जवाब देंहटाएंदिलचस्प लेख।
घोंघा के बारे में एक गजब तरीके में इसकी जानकारी उपलब्ध करवाई ...आपके लेख पढ़ने में बड़ा मज़ा आता है ललित जी।
जवाब देंहटाएंवाह... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंराम-राम ललित जी !
जवाब देंहटाएंसैर कर दुनिया की गाफिल ....
प्रभावी लेखनी,
जवाब देंहटाएंनव वर्ष की शुभकामना !!
आर्यावर्त
शान की चाल घोंघे की.
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी आभार
जवाब देंहटाएंअपने आप पर भी व्यंग कर लेने की विधा कोई आपसे सीखे.
जवाब देंहटाएंवाह ! बढ़िया ज्ञान वर्धन हुआ, घोघा नाम ही सुना था चित्र आज पहली बार देखा :)
जवाब देंहटाएंबढ़िया है , एक पिट्ठू खरीदने के लिए उकसा रहे हो !
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें !
सच कहा आपने, पर अपना खोल कहाँ से लायें।
जवाब देंहटाएंkisi ne is jeev par kabhi nahi likha , aapne likh kar is jeev ka jeevan sarthak kar diya , vastav me ye bahut sundar pranee hai,. inhi ki prajati ke bade bade ghonghe se hum shankh bajaate hai pooja ke samay.
जवाब देंहटाएंसंजय जी ने लिंक दिया तो यहाँ तक पहुँचा। क्या संजोग है कि आप भी घोंघा में रमे हैं बस अंदाज अलग-अलग हैं। ..अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंYe kya kam me aata hai
जवाब देंहटाएंSar yah ghogha mere paas હે
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