बुधवार, 9 जनवरी 2013

सघन वन में सिंघा धुरवा ………… ललित शर्मा

प्राम्भ से पढ़ें 
सुबह मदिरों का भ्रमण कर रहे थे तभी शैलेन्द्र दुबे पहुंच गए। 9 बज रहे थे और अभी हमें स्नान के साथ नाश्ता भी करना था। घर पहुंच कर फ़टाफ़ट तैयार हुए और होटल से नाश्ता करके पानी की बोतलें लेने के बाद हम सिंघा धुरवा (सिंगन गढ)  की तरफ़ रवाना हुए। खरखरा एवं महमल्ला नाला पार करने के बाद हम अमलोर के स्कूल में पहुंचे। वहाँ से पाण्डे जी को साथ लिया। एक से भले दो और दो से भले हम चार हो चुके थे। बोरिद गाँव के बाहर की सड़क पर चल कर हम सुकलई नाले के पास पहुंचे। नाले में पानी एवं रेत होने के कारण हमें बाईक से उतर कर नाला पार करना पड़ा। नाला पार करके हम जंगल में प्रवेश कर गए।  मैं सोच रहा था कि जल्दी ही सिंगा धुरवा पहुंच कर शाम ढलते तक लौट आएगें।मेरे साथ आदित्य सिंह, पाण्डे जी, शैलेन्द्र तीनो ही इस जंगल का अनुभव रखने वाले थे। वे पूर्व में भी कई बार इस स्थान पर आ चुके थे। मैं आशवस्त था कि जब 3 अनुभवी गाईड हैं तो जंगल में कोई समस्या नहीं होने वाली। जंगल में प्रवेश करने पर सबसे पहले बांस का जंगल मिला। बांस के जंगल में पतली पगडंडी दिखाई दे रही थी और उस पर ही हम चल रहे थे। आगे-आगे मै और आदित्य सिंह और पीछे-पीछे शैलेन्द्र दूबे और पांडे जी। बरसात के समय जंगल भयानक हो जाता है। कीड़े-मकोड़े, मकड़ियाँ, सांप-बिच्छू आदि का पता नहीं चलता कि घास में कहाँ छिपे हैं। सिर्फ़ एक ही दंश काफ़ी है इनका आदमी को खाट पकड़ाने के लिए।
जंगल का प्रवेश द्वार सुकलई नाला पार करते हुए 

घास के पत्तों की आड़ में छिपी पगडंडी दिखाई दे रही थी। पर उस पर लगातार मनुष्य के चलने के चिन्ह नहीं दिख रहे थे। बांस की झाड़ियाँ पगडंडी पर झूल रही थी। हमें झुक कर निकलना पड़ रहा था। साथ बड़ी मकड़ियों ने जाले बुन कर रास्ता बंद कर रखा था। उनके बीच से निकलने पर सारा जाला ही मुंह पर आ जाता था। इससे बचने के लिए मैने बांस की एक टहनी ले ली और उसे आगे करने से जाले टूट जाते थे। सिंगा धुरवा जाने के लिए नाले को सात बार पार करना पड़ता है ऐसा आदित्य सिंह ने बताया। यह एक ही  नाला है जो सात भांवर पहाड़ी की तलहटी में घूमता है। यह बार नवापारा का घनघोर जंगल है। आगे बढने पर रास्ते में मनुष्यों की उपस्थिति के चिन्ह दिखाई देने लगे।कमार आदिवासियों ने बांस काट कर पगडंडी पर फ़ेंक रखे थे। इसके कारण बाईक निकालने में परेशानी हो रही थी। अब हमने नाले को एक बार पार कर लिया था। नाले में गाड़ी पार करने के लिए वृक्षों की शाखाएं डाली हुई थी। अन्यथा उनके बिना रेत में नाला पार करना संभव नहीं था। नाला पार कर रहे थे और गिनती कर रहे थे कि कितनी बार पार कर लिया। 5 बार नाला पार करने के बाद आदित्य सिंह ने बाईक रोक ली और कहने लगे कि बस सिंघा धुरवा के समीप आ गए हैं। इधर से रास्ता बाघ माड़ा जाता है और आगे नाला पार करने के बाद सिंगा धुरवा आ जाएगा। हम आगे बढते जा रहे थे। लगभग 2 घंटे हो गए थे हमें जंगल में चलते हुए। अब हम भूल चुके थे कि  नाला कितनी बार पार किया है। एक स्थान पर बाईक रोक कर आदित्य सिंह और पाण्डे जी ने मंत्रणा की। फ़ैसला किया कि आगे चलना चाहिए, सिंघा धुरवा आगे है।
जंगल के मध्य में अफ़्रीका के जंगलों जैसी बांबी

हम इनके ही भरोसे थे, जब जानकार आदमी हो तो उनके विवेकानुसार चलना ही धर्म है। आगे चलने पर हमें सागौन एवं अन्य वृक्षों का प्लांटेशन दिखाई दिया। प्राकृतिक जंगल की जगह कृत्रिम जंगल में आ गए थे। यहाँ रास्ता बना हुआ था। एक जगह हमें दो टांगीधरी चरवाहे मिले, हमने उनसे सिंघा धुरवा जाने का रास्ता पूछा। उन्होने कहा कि आगे चल कर फ़ारेस्ट के चौकीदार की झोंपड़ी आएगी उससे बाएं तरफ़ जाने से सिंघा धुरवा आएगा और दाएं तरफ़ जाने से छेरी  गोधनी। हमने दाएं तरफ़ जाकर सबसे पहले सिंगा धुरवा जाने का निश्चय किया। अब हम आगे बढकर दाएं मुड़ गए। कच्चे रास्ते पर फ़िर से बांस का घना जंगल शुरु हो गया था।रास्ते के  दोनो तरफ़ आदमकद से भी ऊंची बांबियाँ दिखाई देने लगी। बांस के घने जंगल से बाईक निकालना भी भारी पड़ रहा था। नाले को दो - तीन बार फ़िर पार किया। आगे बढने पर हम एक पठार पर पहुंच गए। लगभग जंगल के भीतर 22-25 किलोमीटर चल चुके थे। पठार के चारों तरफ़ पहाड़ियाँ दिख रही थी। दृश्य मनमोहक था। लेकिन जंगल में हमारे अलावा कोई दूसरा आदमी दिखाई नहीं दे रहा था। नाले से गाड़ी पार करते थक चुके थे। पठार से थोड़ा आगे बढने पर एक बैल या गाय का कंकाल दिखाइ दिया। अब इसका मतलब यह था कि यहाँ बड़े शिकारी जानवर भी हैं। जो शिकार करके मांस खा गए। यहाँ से आगे बढने पर हमें सिंघा धुरवा जाने का रास्ता नहीं मिला।
घने जंगल में रास्ता

आगे पहुचने पर टी एन्ड आ गया। हम एक तरफ़ बढ रहे थे। नाला पार करने के बाद रास्ता पथरीला था। जगह-जगह पत्थर बिखरे पड़े थे। हमने यहाँ पत्थरों में पुरावशेष तलाश करने का प्रयत्न किया। मुझे भूख लगने लगी थी। सुबह जब सिरपुर से चले थे तो हमने 8 आलु बड़े ले लिए थे। अन्य साथियों ने तो खाने से मना कर दिया। मैने बैठे-बैठे सारे ही बड़े खा लिए। पानी पीकर डकार ली तो कुछ जान में जान आई। आदित्य सिंह और पाण्डे जी लौटकर दूसरे रास्ते पर तलाश करने लगे और हम पत्थरों  में सिर फ़ोड़ने लगे। पुरावशेषों के कोई चिन्ह नहीं मिले। बरसात के कारण घास अधिक थी और पत्तों से धरती ढकने के कारण दिखाई भी नहीं दे रह था।हम भी लौट चले, नाला पार करने के बाद आदित्य सिंह और पाण्डे जी मिल गए। हमने निर्णय किया कि अब 3 बज रहे हैं वापस चला जाए। जंगल में सूर्यास्त भी  जल्दी हो जाता है और दिन भी छोटे हैं। कहीं रास्ता भटक गए तो मुश्किल हो जाएगी। यहाँ मोबाईल भी काम नहीं कर रहा था। अगर मोबाईल काम भी करता तो हम क्या पता बताते अपना कि कहाँ पर खो गए हैं। ऐसा कुछ चिन्ह भी नहीं दिखाई दे रहा था जिसे पता बनाया जा सकता। नाला पार करने के बाद एक पहाड़ी के किनारे आदित्य सिंह ने फ़िर गाड़ी रोकी और कहा कि सही जगह पहुंच गए। यहीं कहीं से रास्ता होना चाहिए सिंघा धुरवा की पहाड़ी पर चढने का। यहाँ भी काफ़ी दूर तक जंगल में पैदल ही भटके लेकिन रास्ता नहीं मिला।
रास्ते में बांस के घने झुरमुट

अपनी बाईक पर सवार होकर हम वापस चले। फ़िर नाला पार करने के बाद नाले के किनारे टीले पर  प्रस्तर के स्तम्भ दिखाई दिए। वहाँ पर लाल झंडा लहरा रहा था। वहाँ पहुचने पर एक दुर्गा की मूर्ती रखी हुई दिखाई दी। साथ ही भवन में लगने वाले दो भारवाहक भी रखे हुए थे। इससे अंदाजा लगाया कि हम सही स्थान पर हैं। यहीं कहीं पर सिंघा धुरवा के पुरावशेष होने चाहिएं। जिसकी खोज हम 5 घंटों से कर रहे थे। ये दोनो प्रस्तर के स्तंभ लगभग 8 फ़ुट के थे और किसी कुशल कारीगर द्वारा तराशे हुए दिखाई दे रहे थे। उन्हे कहीं आस-पास से ही लाकर रखा गया होगा। मैने दो-तीन चित्र लिए और वहाँ से हम लौट चले। जिस रास्ते से आए थे उसी रास्ते पर जंगल को पार करते हुए हम बोरिद पहुंचे।पास के ही गाँव में खाने का इंतजाम था।
आदित्य सिंह जी

बोरिद पहुंचने पर स्कूल के पास बोरिंग से पानी भरती केजा बाई मिल गयी। उसके पूछने पर आदित्य सिह ने बताया कि सिंघा धुरवा गए थे और जंगल में रास्ता भटकने के कारण उस स्थान तक नहीं पहुच पाए। केजा बाई ने कहा कि उसके नाती प्रमोद को ले जाना था वह पहुचा देता आप लोगों को। बस यही गलती हो गयी थी। दिन भर भटकने बाद भी मनवांछित स्थान पर नहीं पहुंच पाए। बोरिद से अब हम सिरपुर के लिए लौट चले थे। शैलेन्द्र को महासमुंद जाना था और मुझे फ़िर एक रात सिरपुर में गुजारनी थी। अगले दिन फ़िर सिंघा धुरवा जाने का प्रबंध करना था। अगर सिंघा धुरवा नहीं पहुंच पाया तो यहाँ आना ही व्यर्थ हो जाएगा। हमने तय किया कि अगले दिन किसी जानकार को ही साथ लेकर जाएगें। जारी है …… आगे पढें……

7 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ! आनंद आ गया , भाई ऐसे स्थानों में मेरी भी गहरी रूचि है और जंगल का थोड़ा बहुत अनुभव भी यदि दुबारा वहां जाने का कार्यक्रम बने तो बतावे मैं भी चलना चाहूँगा

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  2. इतना भटकने के बाद सिंघा धुरवा पहुँच की कथा पढ़ना और रुचिकर लगेगा!

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  3. बहुत रोचक और रोमांचक यात्रा वृतांत.

    रामराम.

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  4. हम तो सोच रहे थे कि कहीं सिंह से मुलाकात का किस्सा है। :)
    लेकिन दिलचस्प रहा और अंत तक कुछ रोमांच का अहसास होता रहा।

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  5. जंगल में बाईक से सवारी..रोचक अनुभव है..

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