विमान अध्याय पर आगे बढते हैं, इस विषय पर मै 17 सितम्बर की एक पोस्ट मे पहले भी लिख चुका हुँ, मेरा उद्देश्य प्राचीन ज्ञान विज्ञान की जानकारी देना ही है.हमारे ग्रथों मे विमानों के विषय मे जानकारी दी गयी है। हम पंचतंत्र की एक कथा की ओर चलते हैं इसमें लिखा है कि एक धुर्त मनुष्य विष्णु का रुप धर के आया करता था और गरुड़ की ही आकृति का वाहन ही लाता था. इसी तरह गयाचिंतामणि नामक ग्रंथ मे मयुर की आकृति के विमान का वर्णन है वाल्मीकि रामायण के सर्ग 9 मे पुष्पक विमान का वर्णन है।-
ब्रह्मणोर्थं कृतं दिव्यं दिवि यद्विश्वकर्मणा।
विमानं पु्ष्पकं नाम सर्वरत्नविभुषितम्॥ (वाल्मीकि रामायन सर्ग9)
भागवत मे राजा शाल्व के विमान का वर्णन आया है-
स लब्धवा कामगं यानं तमोधाम दुरासदम्।
ययौ द्वारवर्ती शाल्वौ वैरं वृष्णिकृतं स्मरन्।
क्वचिदू भूमौ क्वचिदू व्योम्नि गिरिश्रृंगे जले क्वचिदू। (भागवत)
शाल्व का यह विमान भूमि, आकाश, जल और पहाड़ पर आसानी से चलता था। सबसे विशाल और भव्य विमान कर्दम ॠषि का था। भागवत मे इसका वर्णन मिलता है।
कुछ ग्रंथो के अध्ययन से पता चलता है कि विमानों को बनाने वाले कारीगर बौद्धकाल तक उपस्थित थे। धम्मपाद मे बोधिराज कुमार वत्थु पृष्ट क्रमांक 410 मे एक कारीगर का वर्णन है कि बोधिराजकुमार ने एक महल बनवाया. बनाने वाले कारीगर ने उसे बड़ा ही विचित्र बनाया. बोधिराज ने सोचा की कारीगर कहीं दुसरे का महल ऐसा ना बना दे, इसलिए उसके हाथ कटवा देना चाहिए. बोधिराज ने यह बात अपने एक सलाहकार से भी कह दी.सलाहकार के माध्यम से यह बात कारीगर तक भी पहुँच गई. कारीगर ने अपनी पत्नी को समाचार कहला भेजा कि वह घर द्वार मालमत्ता बेचकर एक दिन इस महल को देखने का निवेदन राजा से करे. स्त्री ने यही किया और वह राजा के आदेश से महल देखने को गई, कारीगर उसे एक कोठरी में ले गया और स्त्री तथा अपने बच्चों समेत गरुड़ यंत्र पर सवार होकर भाग गया तथा नेपाल के काठ मांडू में रहने लगा.विमान पक्षी (गरुड़) की आकृति के बनते थे. इसलिए भगवान विष्णु का वहां गरुड़ कहा गया है.
वैदिक काल में हमारा विज्ञान समृद्ध था. लेकिन आज प्रश्न उठते हैं कि इस ज्ञान को हम सहेज कर क्यों नहीं रख सके जबकि हमने तकनीकि दृष्टि से इतना विकास किया था. मेरी तो समझ में कुछ बाते आती हैं.
- हमारे देश में कारीगरी परंपरागत रूप से चलती थी. जो पिता के द्वारा पुत्र को हस्तांतरित होती थी. यह उनका व्यापारिक रहस्य था जिसे दुसरे कुल के लोगों को बताना नहीं चाहते थे. यदि उस कुल में कोई पुत्र या व्यक्ति इसे जानने के योग्य नहीं रहा तो उसकी मृत्यु के साथ सारी विद्या समाप्त हो गई.
- परम्परागत कारीगर इसे बताकर अपना व्यवसायिक प्रतिद्वंदी नहीं खड़ा करना चाहते होंगे.
- युद्ध में भीषण विनाश होने के कारण राज्य द्वारा परम्परागत कारीगरों को संरक्षण नही मिलना.
- कारीगर का जीवन राज सहयोग से ही चलता था. राज्य संरक्षण में ही वे अपना जीवन यापन कर उत्तम कृतियों का निर्माण करते थे. उदासीन राजा के कारण राज्य संरक्षण प्राप्त नहीं होने के कारण वे इस कार्य को सतत नहीं रख सके होंगे
- इस निर्माण कार्य में अतुल धन राशि का व्यय होता था.राजा ही निर्माण का खर्च उठा सकते थे. इसलिए काम नहीं मिलने की दशा में व्यवसाय परिवर्तन किया होगा.
- आज भी हमारे देश में उत्कृष्ट कारीगर हैं जो बड़े-बड़े इंजीनियरों को धुल चटा देते हैं लेकिन औद्योगिक करण के कारण उनका व्यवसाय प्रभावित हुआ है. आज परंपरागत कुशल कारीगर जीविको पार्जन के लिए मिटटी खोदने को मजबूर हैं.
- विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा निरंतर लिखित सामग्री एवं ग्रंथालयों का नष्ट किया जाना.
अतीत के दिग्दर्शन कराने के लिए आभार!
जवाब देंहटाएंnarayan narayan
जवाब देंहटाएंबहुत आभार..उम्दा जानकारी दे रहे हैं आप.
जवाब देंहटाएंहम ने ज्ञान को क्यों खोया यह जानना और इस का शोध महत्वपूर्ण है। इस से हम अपनी समाज व्यवस्था की कमजोरियाँ जान सकेंगे और उन से निजात पाने की कोशिश कर सकेंगे।
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक पोस्ट है मुझे लगता है कि ये दो कारण बहुत महत्वपूर्ण रहे हैं
जवाब देंहटाएं# आज भी हमारे देश में उत्कृष्ट कारीगर हैं जो बड़े-बड़े इंजीनियरों को धुल चटा देते हैं लेकिन औद्योगिक करण के कारण उनका व्यवसाय प्रभावित हुआ है. आज परंपरागत कुशल कारीगर जीविको पार्जन के लिए मिटटी खोदने को मजबूर हैं.
# विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा निरंतर लिखित सामग्री एवं ग्रंथालयों का नष्ट किया जाना.
धन्यवाद इस आलेख के लिये
संग्रहनीय पोस्ट है .. अभी बस इतना ही कह रहा हूँ ..
जवाब देंहटाएंललित जी! अत्यन्त सराहनीय कार्य कर रहे हैं आप प्राचीन कारीगरी की जानकारी देकर!
जवाब देंहटाएंअपने ज्ञान को सहेज कर न रख पाने के पीछे एक और बहुत बड़ा कारण है हमारा सैकड़ों वर्षों तक परतन्त्र रहना। इस परतन्त्रता ने हमारी भाषा को ही बदल कर रख दिया। पहले अरबी फारसी और बाद में अंग्रेजी हमारी भाषा बनते गई और संस्कृत भाषा, जिसमें हमारा सम्पूर्ण ज्ञान निहित है, का एक प्रकार से लोप हो गया।
आपके इस कथन से कि पिता अपनी कारीगरी पुत्र को देता था एक सीमा तक मैं सहमत नहीं हूँ क्योंकि हमारे देश में सनातन काल से ही गुरु शिष्य की परम्परा चली आ रही है और ज्ञान गुरु से ही प्राप्त हुआ करता था। उदाहरण के लिये देवव्रत अर्थात् भीष्म धनुर्विद्या के महाज्ञानी थे और पाण्डवों तथा कौरवों को वे ही शस्त्र शिक्षा प्रदान कर सकते थे किन्तु उन्होंने द्रोणाचार्य को पाण्डवों और कौरवों का गुरु नियुक्त किया।
अस्तु, आशा ही नहीं बल्कि विश्वास है कि आप इस ज्ञानवर्धक लेखमाला को जारी रखेंगे।
आप उम्दा जानकारी दे रहे हैं...
जवाब देंहटाएंbahut gyanvardhak post..jari rakhiyega.
जवाब देंहटाएंसंग्रहनीय पोस्ट है .. अभी बस इतना ही कह रहा हूँ ..
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