डॉ मीनाक्षी स्वामी मध्यप्रदेश शासन के उच्च शिक्षा विभाग में प्राध्यापक पद पर कार्यरत हैं, आपने समाजशास्त्र लगभग 40 पुस्तकें लगभग हर विधा मे हर वर्ग के लिए रची हैं, रचना कर्म के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान और स्वीकृति के रुप में रचनाओं पर भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों एवं मध्य प्रदेश तथा उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा दो दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। यह कहानी मध्यप्रदेश शासन द्वारा 2008 में पुरस्कृत हुई है और हाल ही में गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार में एम.ए. हिंदी साहित्य के पाठ्यक्रम में शामिल की गई है।
सुबह ठीक पौने पाँच बजे जब वह सैर करने के इरादे से अपने बंगले के गेट तक आया ही था कि बूँदें पड़ने लगीं। वह भीतर लौट आया और बरामदे में रखी हुई कुर्सी पर बैठकर बूँदों का गिरना देखने लगा। बरामदे की छत के स्लोब के किनारों से बूँदों ने मोती की लड़ी बनाकर झड़ी लगा दी। नीचे की रेलिंग तक आकर बूँदों की लड़ी के दो चार मोती रेलिंग में अटक जाते और फिर देर रात तक अटके रहते। बरसात के दिनों में अक्सर उसका सैर करने जाना छूट जाता है। मगर बरसों पुरानी इस आदत की कड़ी टूटने के बावजूद वह जरा भी विचलित नहीं होता और मोती की इन लड़ियों को बड़े ही इत्मीनान के साथ मुग्ध भाव से देखा करता है। इस सौंदर्य का आकर्षण उसके लिए इतना अधिक है कि वह छतरी या बरसाती लेकर भी सैर के लिये नहीं जाता है।
यहाँ बैठकर वह मन ही मन अपने बीते बरसों की लंबी सैर कर आता है। बचपन का वह दृश्य आज भी उसकी आँखों में ज्यों का त्यों है। गांव का गारे मिट्टी का गोबर से लिपा टीन की छत वाला घर, जब रिमझिम बरसात की बूँदें टीन की छत पर गिरती तो कर्णप्रिय संगीत निकलता और छत के किनारे से पानी के बूँदें मोती की लड़ी सी झरने लगती। आगे के कमरे की दहलीज पर बैठ वह मोतियों का टपकना देखा करता।
एक दिन उसने सोचा कि कुछ मोती इकट्ठे करके अपने पास रखूँ और अपने दोस्तों को भी दिखाऊँ। वह माचिस की खाली डिबिया लाया और उसे खोलकर मोती की गिरती हुई लड़ी के नीचे लगा दिया। मगर डिबिया में मोती की जगह पानी देखकर वह बहुत निराश हुआ। फिर उसने खूब दिमाग लगाया और एक ही मोती डिबिया में रखा, मगर वह भी डिबिया में आते ही पानी की बूँद बन गया था। वह घर में सबसे छोटा था, अपने बड़े भाई बहनों को उसने अपनी परेशानी यह सोचकर बताई थी कि वे उसकी मदद करेंगे पर वे खूब हंसे और तो और वे सब पड़ोसियों, रिश्तेदारों, परिचितों और स्कूल के साथियों को भी यह बात बताते रहे। यह सिलसिला कई दिनों तक चला और वह खूब झेंपता रहा। जब परेशान होकर उसने माँ को बताया तब उन्होंने सबको डाँटकर उसे उबारा था। यह बात तो अब भी जब कभी सब भाई बहन इकट्ठे होते हैं, करते हैं, मगर इस बात पर अब वह भी खुलकर हँसता है।
उम्र बढ़ने के साथ पानी की बूँदों के प्रति उसका प्यार और आकर्षण भी बढ़ता गया। यह सब सोचते-सोचते उसने देखा कि बरसात बंद हो गई है। सैर पर जाने के लिए अभी भी पर्याप्त समय है। यह देखकर वह निकल पड़ा, बरामदे से बाहर, गेट से निकलकर सड़क पर। गेट से ही उसका गनमेन भी उसके पीछे हो लिया।
राजधानी के इस विशिष्ट इलाके में श्यामल पहाड़ियों के उतार चढ़ाव के बीच साफ सुथरी चिकनी काली सरपट सड़क पर घूमना उसकी सुबह को अलौकिक बना देता है। पेड़ों की बहुतायत, तरह-तरह के पंछियों का कलरव, कि जंगल का सा आभास और बीच-बीच में बने जंगले इलाके की विशिष्टता का अहसास कराते है। वह मेनरोड पर चल रहा है और पीछे-पीछे गनमेन। गनमेन के जूतों की खट-खट की आवाज वह साफ-साफ सुन रहा है और जान रहा है कि वह भी उसी की गति से चल रहा है। वह उससे अपनी दूरी को एक इंच भी न कम होने दे रहा है न ज्यादा। भीगी हुई सड़क पर तेज चलती हुई एक मेटाडोर आई तो वह फुटपाथ पर हो गया। मेटाडोर के चले जाने के बाद देर तक उसके शोर में गनमेन के जूतों की खट-खट दबी रही, लेकिन उसने महसूस किया कि उसके फुटपाथ पर आते ही वह भी उसके पीछे आ गया है।
वह मुसकाया और मेनरोड पर चलते हुए थोड़ा आगे आकर उस गली में मुड़ गया जहाँ अच्छी खासी पहाड़ी ढलान थी। ढलान से उतरते हुए उसके कानों में पानी के झर-झर झरने की आवाज पड़ी। बरसात रूकने के बाद देर तक ऐसी ही आवाज आती है इस जगह पर। पेड़ों के झुरमुट के भीतर पत्थरों के ढेर के बीच से बहता पानी झरने की सी आवाज करता, बरसात रूकने के बाद भी देर तक बहता रहता है और देर तक यहाँ ऐसी ही आवाज आती है। वह कुछ पल रूका और आवाज सुनता रहा। बरसात के दिनों में यह आवाज सुनते हुए हर बार वह सोचता है कि कभी समय निकालकर वह जगह देखेगा, जहाँ से पानी गिरता है। मगर उसका सोच अभी तक सोच ही है।
मोड़ पर आकर उसने देखा, कोने के पास वाले खाली पड़े बंगले के गेट के बाहर शेरू पिल्ला बैठा है। उसके देखते-देखते वह खड़ा हुआ, थोड़ा आगे बढ़कर उसने पहले अपने भीगे हुए कान फड़फड़ाए, फिर पूँछ और फिर पूरा शरीर और भागा अपनी माँ के पास। यह देखकर वह हँस पड़ा। इसी मोड़ से आगे सड़क से होकर घूमते हुए वह फिर उसी गली में आ गया, जो आगे मेनरोड पर मिलती है। इधर से लौटते हुए अब वही ढलान चढ़ाई में बदल गई है। बादल होने से, सूरज के ढँका होने के बावजूद अब तक अच्छा खासा उजाला हो गया है।
चढ़ाई खतम होने पर पिछले साल ही दांई ओर बनी चाय की गुमटी पर उसका ध्यान गया। गुमटी अभी-अभी ही खुली है और चायवाला साफ सफाई कर रहा है। गुमटी से लगभग सटी हुई देवी के मंदिर की फेंसिंग है, जिसका बाहरी आकार नारियल की तरह है। मंदिर और चाय की गुमटी दोनों ही अतिक्रमण करके बनाए गए हैं, जिन्हें हटाने का ख्याल सपने में भी करने में इस विषिष्ट इलाके के सक्षम लोग निष्क्रिय हैं। मामला धार्मिक आस्थाओं का है और चुनाव में सिर्फ साल सवा साल ही बचा है। इस निष्क्रियता में वह भी शामिल है। यह सोचते हुए वह मेनरोड पर बने फुटपाथ पर आ गया और तालाब की ओर बढ़ गया।
तालाबों के इस शहर में उसके बंगले के दाहिनी तरफ की बाऊण्ड्री वॉल से लगा हुआ ही तालाब है। फुटपाथ पर चलता हुआ वह तालाब के सामने आ गया और वहाँ लगी पत्थर की बेंच पर बैठ गया। तालाब में ही लबालब भरी जलराषि को देखना उसे हमेशा से ही रोमांचक लगता रहा है। तालाब में हवा के झोंकों से हल्की-हल्की लहरें उठ रही हैं। कुछ दूरी पर जलमुर्गियाँ क्रीड़ाएँ कर रही हैं। वे कभी थोड़ा सा उड़ती, फिर पानी में डुबकी लगाती, फिर तैरने लग जाती और थोड़ी दूर तैरकर फिर किनारे पर आ जाती। किनारों की चट्टानों से बरसात का पानी अब भी गुनगुनाता हुआ तालाब में समाहित हो रहा है। इस गुनगुनाहट में मेंढकों का शोर और पक्षियों का कलरव मिलकर अनुपम संगीत रचकर वातावरण में नया रस घोल रहा है। उसने दूर दृष्टि डाली। काले-काले बादल बिल्कुल नीचे झुक आए हैं, बादलों की धुंध में दूर के पेड़ पौधे पहाड़ी सब ढँके हुए हैं। कुछ पल आंखें मूँद कर वह इस अलौकिक सुबह में डूब गया।
फिर वह उठा और उसी रास्ते से वापिस लौटने लगा। थोड़ा आगे फुटपाथ के किनारे खूबसूरत बगीचा है। अब वह उसी ओर जा रहा है। उसके पीछे चल रहा गनमेन भी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि अब साहब बगीचे में जाएँगें। यदि वह नावाकिफ है तो उसके भीतर की दुनिया से। राजधानी के इस विषिष्ट इलाके में एक दो नहीं, पूरे पाँच बगीचे हैं आमने-सामने। और बारिष की इस अलौकिक सुबह में वह उस विषिष्ट बगीचे में दाखिल हो गया, जिसमें आने के बारे में अपने बचपन तो क्या, युवावस्था में भी उसने कभी सपना तक नहीं देखा था।
वह बगीचे के लॉन के बीच बने पक्के फर्श पर धीरे-धीरे चलने लगा। भीगे हुए मौसम की नमी उसके मन को छू रही है। लॉन में तरतीब से उगी और साज सम्हाल से कालीन सी बिछी हरी-हरी घास पर उसने हीरे की कनी सी चमकती देखी। वह अच्छी तरह से जानता है ये बूँदें ही हैं। किनारें की गुलाब की क्यारी पर उसकी नजर पड़ी तो उसने गुलाबों पर बूँदों के मोती चमकते देखे। वह आगे बढ़कर बगीचे के आखिरी कोने पर पहुँचा। कोने में बने कमल के आकार के बड़े हौद की सतह पर खिले कमल के पत्तों पर बूँदें अब तक कांप रही है। तभी उसने फड़फड़ाहट की आवाज सुनी और उसकी नजर ऊपर पेड़ पर पड़ी। एक तोते ने अपने पंख फड़फड़ाए और फिर आसमान की ओर देखा, पानी रूका देखकर उसने ऊँची उड़ान भरी और देखते-देखते आंखों से ओझल हो गया।
अब वह दूसरी तरफ चला और खालिस पानी से भरे हौद के पास बैठ गया। हौद के पास झुक आए पेड़ के पत्तों से फिसलती बूँदें पानी में डुबकी लगा रही हैं । उनके डूबने के बाद बनते गोल घेरे को वह ध्यान से देखने लगा और बड़ी देर तक यही देखते रहने के बाद वह धीरे से उठा और बगीचे से बाहर आया, घर की ओर लौट जाने के लिये। बगीचे के बाद वाली सड़क पार करने के बाद कोने पर उजाड़ पड़े, अधबने शॉपिंग सेंटर की दीवार के कोने पर उसे माणिक की झालर दिखी । उससे रहा नहीं गया। वह रूका और अपने पीछे चल रहे गनमेन को यह अद्भुत नजारा दिखाया। फिर वह उसे उस दीवार के पास मकड़ी का वह बड़ा जाला दिखाने ले गया, जिसमें लटकी बूँदें ही दूर से मणियों की झालर जैसी दिख रही थी। बूँदों का यह चमत्कार देखकर गनमेन दंग रह गया।
यह बूँदों का ही तो चमत्कार है कि आज वह यहाँ इस जगह खड़ा है। राजधानी की श्यामल पहाड़ियों पर बने इस विशिष्ट इलाके के विशिष्ट बंगले में रह रहा है।
इस चमत्कार की कहानी तो तभी शुरू हो गई थी जब उसे बूँदों के मोती को माचिस की डिबिया में सहेजने की बात सूझी थी। यही सूझ मन के किसी कोने में दबी पड़ी थी और इसका पता खुद उसे भी नहीं था। मगर जब अपने खेतों में सिंचाई के लिए कई नलकूप खुदवाने के बावजूद पानी की एक बूँद भी नहीं निकली और उसे पता चला कि धरती की कोख में पानी दम तोड़ चुका है, तब अवसाद में घिरा वह अपने घर के उसी आगे वाले कमरे की दहलीज पर बैठा उपाय सोच रहा था। तब उसे माचिस की डिबिया में बूँदों के मोती समेटने की बात याद आई और अनायास ही उसे सूझा कि विराट को विराट में ही समेटा जा सकता है। पानी की बूँदें माचिस की डिबिया में नहीं, धरती में समेटी जा सकती है। बस यही सोचकर उसने नलकूप खुदवाने बंद कर दिए और एक डबरी बनवाई। जब थोड़ी ही सही, पर बारिश हुई तो आसपास का पानी डबरी में समा गया और डबरी भर कर तालाब बन गई। तालाब क्या भरा, उसका मन उत्साह से भर गया। फिर तो उस पर जैसे जुनून ही सवार हो गया डबरी, तालाब खुदवाने का। उसने पानी के बहाव की दिशा में गाँव के चारों ओर तालाबों की श्रृंखला बनवा दी। जहाँ तालाब बनवाने की जगह नहीं थी वहाँ चेक डेम बनवाए। अब वह पानी की बूँदों को माचिस की डिबिया में नहीं, तालाबों, चेक डेमों और इसके सहारे धरती के भीतर भर लेना चाहता था और इसी का कमाल था कि एक साल की सामान्य बारिश के बाद ही गाँव में उसके खुदवाए और अन्य सूखे नलकूपों में पानी आने लगा। गाँव के सूखे कुँए पानी से लबालब भर गए। गाँव में भरपूर पानी हो गया।
जब उसके भाई-बहनों ने जाना कि बूँदों को माचिस की डिबिया के बजाय धरती में सहेज रहा है और उसकी सहेजी गई बूँदें धरती में समाने के बाद तालाबों में लबालब भरी है तो अबकी बार हँसने के बजाय उन्होंने दांतों तले ऊँगली दबा ली। गाँववाले उसे सरपंच चुनाव में खड़ा होने के लिए मनुहार करने लगे। उसने उस मनुहार का आदर भी किया। मगर पानी सहेजने का उसका जुनून बना रहा। पंचायत को मिली फर्नीचर की राशि भी उसने तालाबों की खुदाई में लगा दी। उसकी टूटी टेबल कुर्सी के लिए जब उसे किसी ने टोका तो उसका जवाब बड़ा ही सरल सहज था कि सुबह से आधी रात तो बाहर तालाब आदि खुदवाने में बीत जाती है, इन पर बैठने का मौका और समय ही कहाँ है ?
और फिर एक दिन न जाने किससे सुनकर एक अखबार वाला उसके काम देखने आया। फिर अखबार की खबर पढ़कर खुद मुख्यमंत्रीजी उससे मिलने और उसका काम देखने आए। मुख्यमंत्रीजी ने भारी भीड़ के सामने उसके काम की तारीफ करते हुए उसके लिए कहा कि उसने कुदरत को जीत लिया है, संकटों को परास्त कर दिया है, तो पहले तो वह संकोच से घिर गया, मगर फिर जल्दी ही सहज हो गया और उनके आद अपने भाषण में उसने साफ बता दिया कि संकट कभी परास्त नहीं होते, वे तो जीवन का एक हिस्सा होते हैं। उसने यह भी बता दिया कि उसने इन्हें संकट नहीं चुनौती माना और इनसे प्यार किया। कुदरत से जीत की बात पर उसने कहा कि मैं कुदरत से प्रतियोगिता नहीं रखता, बल्कि खुद को उस विराट का अंश मानता हूँ।
मुख्यमंत्रीजी और अखबार वालों ने उसे महामानव बना दिया। मगर वह अभी भी खुद को वही समझता था और माचिस की डिबिया वाली बात याद करके झेंप जाता था। यही नहीं, वह अब भी मन ही मन सोचा करता था कि किसी तरह धरती के भीतर घुस कर देख सके कि धरती कि डिबिया के भीतर भरा पानी कैसा लगता होगा।
धरती के भीतर घुसना तो उसके लिए सपना ही रहा, पर उसे फिर लोगों की और पार्टी की मनुहार पर विधानसभा चुनाव में खड़ा होना पड़ा। बेशक वह चुनाव जीता और मंत्री बना। पिछले करीब चार सालों से वह मंत्री है। पानी को सहेजने का उसका जुनून अब गाँव की सीमा से बाहर निकलकर प्रदेश
भर में फैल चुका है। उसके रहते प्रदेश में, पानी की कहीं कोई कमी नहीं है। अखबार वाले उसे कभी इंद्रदेव बताते हैं, तो कभी लोकतंत्र का महानायक।
उसे याद आया, उसकी शुरूआती सफलता के समय जब सबने यहां तक कि अखबार वालों ने भी उसके लिए कहा था कि वह बुद्धि से काम लेता है और यह सफलता उसके दिमाग का ही कमाल है, तब माँ ने कहा था कि यह प्रेम का कमाल है, पानी के प्रति उसके प्रेम का। उसे अनायास ही माँ की बात याद आ गई और उसकी आंखों से एक बूँद मोती बनकर लुढ़की।
डॉ. मीनाक्षी स्वामी
यहाँ बैठकर वह मन ही मन अपने बीते बरसों की लंबी सैर कर आता है। बचपन का वह दृश्य आज भी उसकी आँखों में ज्यों का त्यों है। गांव का गारे मिट्टी का गोबर से लिपा टीन की छत वाला घर, जब रिमझिम बरसात की बूँदें टीन की छत पर गिरती तो कर्णप्रिय संगीत निकलता और छत के किनारे से पानी के बूँदें मोती की लड़ी सी झरने लगती। आगे के कमरे की दहलीज पर बैठ वह मोतियों का टपकना देखा करता।
एक दिन उसने सोचा कि कुछ मोती इकट्ठे करके अपने पास रखूँ और अपने दोस्तों को भी दिखाऊँ। वह माचिस की खाली डिबिया लाया और उसे खोलकर मोती की गिरती हुई लड़ी के नीचे लगा दिया। मगर डिबिया में मोती की जगह पानी देखकर वह बहुत निराश हुआ। फिर उसने खूब दिमाग लगाया और एक ही मोती डिबिया में रखा, मगर वह भी डिबिया में आते ही पानी की बूँद बन गया था। वह घर में सबसे छोटा था, अपने बड़े भाई बहनों को उसने अपनी परेशानी यह सोचकर बताई थी कि वे उसकी मदद करेंगे पर वे खूब हंसे और तो और वे सब पड़ोसियों, रिश्तेदारों, परिचितों और स्कूल के साथियों को भी यह बात बताते रहे। यह सिलसिला कई दिनों तक चला और वह खूब झेंपता रहा। जब परेशान होकर उसने माँ को बताया तब उन्होंने सबको डाँटकर उसे उबारा था। यह बात तो अब भी जब कभी सब भाई बहन इकट्ठे होते हैं, करते हैं, मगर इस बात पर अब वह भी खुलकर हँसता है।
उम्र बढ़ने के साथ पानी की बूँदों के प्रति उसका प्यार और आकर्षण भी बढ़ता गया। यह सब सोचते-सोचते उसने देखा कि बरसात बंद हो गई है। सैर पर जाने के लिए अभी भी पर्याप्त समय है। यह देखकर वह निकल पड़ा, बरामदे से बाहर, गेट से निकलकर सड़क पर। गेट से ही उसका गनमेन भी उसके पीछे हो लिया।
राजधानी के इस विशिष्ट इलाके में श्यामल पहाड़ियों के उतार चढ़ाव के बीच साफ सुथरी चिकनी काली सरपट सड़क पर घूमना उसकी सुबह को अलौकिक बना देता है। पेड़ों की बहुतायत, तरह-तरह के पंछियों का कलरव, कि जंगल का सा आभास और बीच-बीच में बने जंगले इलाके की विशिष्टता का अहसास कराते है। वह मेनरोड पर चल रहा है और पीछे-पीछे गनमेन। गनमेन के जूतों की खट-खट की आवाज वह साफ-साफ सुन रहा है और जान रहा है कि वह भी उसी की गति से चल रहा है। वह उससे अपनी दूरी को एक इंच भी न कम होने दे रहा है न ज्यादा। भीगी हुई सड़क पर तेज चलती हुई एक मेटाडोर आई तो वह फुटपाथ पर हो गया। मेटाडोर के चले जाने के बाद देर तक उसके शोर में गनमेन के जूतों की खट-खट दबी रही, लेकिन उसने महसूस किया कि उसके फुटपाथ पर आते ही वह भी उसके पीछे आ गया है।
वह मुसकाया और मेनरोड पर चलते हुए थोड़ा आगे आकर उस गली में मुड़ गया जहाँ अच्छी खासी पहाड़ी ढलान थी। ढलान से उतरते हुए उसके कानों में पानी के झर-झर झरने की आवाज पड़ी। बरसात रूकने के बाद देर तक ऐसी ही आवाज आती है इस जगह पर। पेड़ों के झुरमुट के भीतर पत्थरों के ढेर के बीच से बहता पानी झरने की सी आवाज करता, बरसात रूकने के बाद भी देर तक बहता रहता है और देर तक यहाँ ऐसी ही आवाज आती है। वह कुछ पल रूका और आवाज सुनता रहा। बरसात के दिनों में यह आवाज सुनते हुए हर बार वह सोचता है कि कभी समय निकालकर वह जगह देखेगा, जहाँ से पानी गिरता है। मगर उसका सोच अभी तक सोच ही है।
मोड़ पर आकर उसने देखा, कोने के पास वाले खाली पड़े बंगले के गेट के बाहर शेरू पिल्ला बैठा है। उसके देखते-देखते वह खड़ा हुआ, थोड़ा आगे बढ़कर उसने पहले अपने भीगे हुए कान फड़फड़ाए, फिर पूँछ और फिर पूरा शरीर और भागा अपनी माँ के पास। यह देखकर वह हँस पड़ा। इसी मोड़ से आगे सड़क से होकर घूमते हुए वह फिर उसी गली में आ गया, जो आगे मेनरोड पर मिलती है। इधर से लौटते हुए अब वही ढलान चढ़ाई में बदल गई है। बादल होने से, सूरज के ढँका होने के बावजूद अब तक अच्छा खासा उजाला हो गया है।
चढ़ाई खतम होने पर पिछले साल ही दांई ओर बनी चाय की गुमटी पर उसका ध्यान गया। गुमटी अभी-अभी ही खुली है और चायवाला साफ सफाई कर रहा है। गुमटी से लगभग सटी हुई देवी के मंदिर की फेंसिंग है, जिसका बाहरी आकार नारियल की तरह है। मंदिर और चाय की गुमटी दोनों ही अतिक्रमण करके बनाए गए हैं, जिन्हें हटाने का ख्याल सपने में भी करने में इस विषिष्ट इलाके के सक्षम लोग निष्क्रिय हैं। मामला धार्मिक आस्थाओं का है और चुनाव में सिर्फ साल सवा साल ही बचा है। इस निष्क्रियता में वह भी शामिल है। यह सोचते हुए वह मेनरोड पर बने फुटपाथ पर आ गया और तालाब की ओर बढ़ गया।
तालाबों के इस शहर में उसके बंगले के दाहिनी तरफ की बाऊण्ड्री वॉल से लगा हुआ ही तालाब है। फुटपाथ पर चलता हुआ वह तालाब के सामने आ गया और वहाँ लगी पत्थर की बेंच पर बैठ गया। तालाब में ही लबालब भरी जलराषि को देखना उसे हमेशा से ही रोमांचक लगता रहा है। तालाब में हवा के झोंकों से हल्की-हल्की लहरें उठ रही हैं। कुछ दूरी पर जलमुर्गियाँ क्रीड़ाएँ कर रही हैं। वे कभी थोड़ा सा उड़ती, फिर पानी में डुबकी लगाती, फिर तैरने लग जाती और थोड़ी दूर तैरकर फिर किनारे पर आ जाती। किनारों की चट्टानों से बरसात का पानी अब भी गुनगुनाता हुआ तालाब में समाहित हो रहा है। इस गुनगुनाहट में मेंढकों का शोर और पक्षियों का कलरव मिलकर अनुपम संगीत रचकर वातावरण में नया रस घोल रहा है। उसने दूर दृष्टि डाली। काले-काले बादल बिल्कुल नीचे झुक आए हैं, बादलों की धुंध में दूर के पेड़ पौधे पहाड़ी सब ढँके हुए हैं। कुछ पल आंखें मूँद कर वह इस अलौकिक सुबह में डूब गया।
फिर वह उठा और उसी रास्ते से वापिस लौटने लगा। थोड़ा आगे फुटपाथ के किनारे खूबसूरत बगीचा है। अब वह उसी ओर जा रहा है। उसके पीछे चल रहा गनमेन भी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि अब साहब बगीचे में जाएँगें। यदि वह नावाकिफ है तो उसके भीतर की दुनिया से। राजधानी के इस विषिष्ट इलाके में एक दो नहीं, पूरे पाँच बगीचे हैं आमने-सामने। और बारिष की इस अलौकिक सुबह में वह उस विषिष्ट बगीचे में दाखिल हो गया, जिसमें आने के बारे में अपने बचपन तो क्या, युवावस्था में भी उसने कभी सपना तक नहीं देखा था।
वह बगीचे के लॉन के बीच बने पक्के फर्श पर धीरे-धीरे चलने लगा। भीगे हुए मौसम की नमी उसके मन को छू रही है। लॉन में तरतीब से उगी और साज सम्हाल से कालीन सी बिछी हरी-हरी घास पर उसने हीरे की कनी सी चमकती देखी। वह अच्छी तरह से जानता है ये बूँदें ही हैं। किनारें की गुलाब की क्यारी पर उसकी नजर पड़ी तो उसने गुलाबों पर बूँदों के मोती चमकते देखे। वह आगे बढ़कर बगीचे के आखिरी कोने पर पहुँचा। कोने में बने कमल के आकार के बड़े हौद की सतह पर खिले कमल के पत्तों पर बूँदें अब तक कांप रही है। तभी उसने फड़फड़ाहट की आवाज सुनी और उसकी नजर ऊपर पेड़ पर पड़ी। एक तोते ने अपने पंख फड़फड़ाए और फिर आसमान की ओर देखा, पानी रूका देखकर उसने ऊँची उड़ान भरी और देखते-देखते आंखों से ओझल हो गया।
अब वह दूसरी तरफ चला और खालिस पानी से भरे हौद के पास बैठ गया। हौद के पास झुक आए पेड़ के पत्तों से फिसलती बूँदें पानी में डुबकी लगा रही हैं । उनके डूबने के बाद बनते गोल घेरे को वह ध्यान से देखने लगा और बड़ी देर तक यही देखते रहने के बाद वह धीरे से उठा और बगीचे से बाहर आया, घर की ओर लौट जाने के लिये। बगीचे के बाद वाली सड़क पार करने के बाद कोने पर उजाड़ पड़े, अधबने शॉपिंग सेंटर की दीवार के कोने पर उसे माणिक की झालर दिखी । उससे रहा नहीं गया। वह रूका और अपने पीछे चल रहे गनमेन को यह अद्भुत नजारा दिखाया। फिर वह उसे उस दीवार के पास मकड़ी का वह बड़ा जाला दिखाने ले गया, जिसमें लटकी बूँदें ही दूर से मणियों की झालर जैसी दिख रही थी। बूँदों का यह चमत्कार देखकर गनमेन दंग रह गया।
यह बूँदों का ही तो चमत्कार है कि आज वह यहाँ इस जगह खड़ा है। राजधानी की श्यामल पहाड़ियों पर बने इस विशिष्ट इलाके के विशिष्ट बंगले में रह रहा है।
इस चमत्कार की कहानी तो तभी शुरू हो गई थी जब उसे बूँदों के मोती को माचिस की डिबिया में सहेजने की बात सूझी थी। यही सूझ मन के किसी कोने में दबी पड़ी थी और इसका पता खुद उसे भी नहीं था। मगर जब अपने खेतों में सिंचाई के लिए कई नलकूप खुदवाने के बावजूद पानी की एक बूँद भी नहीं निकली और उसे पता चला कि धरती की कोख में पानी दम तोड़ चुका है, तब अवसाद में घिरा वह अपने घर के उसी आगे वाले कमरे की दहलीज पर बैठा उपाय सोच रहा था। तब उसे माचिस की डिबिया में बूँदों के मोती समेटने की बात याद आई और अनायास ही उसे सूझा कि विराट को विराट में ही समेटा जा सकता है। पानी की बूँदें माचिस की डिबिया में नहीं, धरती में समेटी जा सकती है। बस यही सोचकर उसने नलकूप खुदवाने बंद कर दिए और एक डबरी बनवाई। जब थोड़ी ही सही, पर बारिश हुई तो आसपास का पानी डबरी में समा गया और डबरी भर कर तालाब बन गई। तालाब क्या भरा, उसका मन उत्साह से भर गया। फिर तो उस पर जैसे जुनून ही सवार हो गया डबरी, तालाब खुदवाने का। उसने पानी के बहाव की दिशा में गाँव के चारों ओर तालाबों की श्रृंखला बनवा दी। जहाँ तालाब बनवाने की जगह नहीं थी वहाँ चेक डेम बनवाए। अब वह पानी की बूँदों को माचिस की डिबिया में नहीं, तालाबों, चेक डेमों और इसके सहारे धरती के भीतर भर लेना चाहता था और इसी का कमाल था कि एक साल की सामान्य बारिश के बाद ही गाँव में उसके खुदवाए और अन्य सूखे नलकूपों में पानी आने लगा। गाँव के सूखे कुँए पानी से लबालब भर गए। गाँव में भरपूर पानी हो गया।
जब उसके भाई-बहनों ने जाना कि बूँदों को माचिस की डिबिया के बजाय धरती में सहेज रहा है और उसकी सहेजी गई बूँदें धरती में समाने के बाद तालाबों में लबालब भरी है तो अबकी बार हँसने के बजाय उन्होंने दांतों तले ऊँगली दबा ली। गाँववाले उसे सरपंच चुनाव में खड़ा होने के लिए मनुहार करने लगे। उसने उस मनुहार का आदर भी किया। मगर पानी सहेजने का उसका जुनून बना रहा। पंचायत को मिली फर्नीचर की राशि भी उसने तालाबों की खुदाई में लगा दी। उसकी टूटी टेबल कुर्सी के लिए जब उसे किसी ने टोका तो उसका जवाब बड़ा ही सरल सहज था कि सुबह से आधी रात तो बाहर तालाब आदि खुदवाने में बीत जाती है, इन पर बैठने का मौका और समय ही कहाँ है ?
और फिर एक दिन न जाने किससे सुनकर एक अखबार वाला उसके काम देखने आया। फिर अखबार की खबर पढ़कर खुद मुख्यमंत्रीजी उससे मिलने और उसका काम देखने आए। मुख्यमंत्रीजी ने भारी भीड़ के सामने उसके काम की तारीफ करते हुए उसके लिए कहा कि उसने कुदरत को जीत लिया है, संकटों को परास्त कर दिया है, तो पहले तो वह संकोच से घिर गया, मगर फिर जल्दी ही सहज हो गया और उनके आद अपने भाषण में उसने साफ बता दिया कि संकट कभी परास्त नहीं होते, वे तो जीवन का एक हिस्सा होते हैं। उसने यह भी बता दिया कि उसने इन्हें संकट नहीं चुनौती माना और इनसे प्यार किया। कुदरत से जीत की बात पर उसने कहा कि मैं कुदरत से प्रतियोगिता नहीं रखता, बल्कि खुद को उस विराट का अंश मानता हूँ।
मुख्यमंत्रीजी और अखबार वालों ने उसे महामानव बना दिया। मगर वह अभी भी खुद को वही समझता था और माचिस की डिबिया वाली बात याद करके झेंप जाता था। यही नहीं, वह अब भी मन ही मन सोचा करता था कि किसी तरह धरती के भीतर घुस कर देख सके कि धरती कि डिबिया के भीतर भरा पानी कैसा लगता होगा।
धरती के भीतर घुसना तो उसके लिए सपना ही रहा, पर उसे फिर लोगों की और पार्टी की मनुहार पर विधानसभा चुनाव में खड़ा होना पड़ा। बेशक वह चुनाव जीता और मंत्री बना। पिछले करीब चार सालों से वह मंत्री है। पानी को सहेजने का उसका जुनून अब गाँव की सीमा से बाहर निकलकर प्रदेश
भर में फैल चुका है। उसके रहते प्रदेश में, पानी की कहीं कोई कमी नहीं है। अखबार वाले उसे कभी इंद्रदेव बताते हैं, तो कभी लोकतंत्र का महानायक।
उसे याद आया, उसकी शुरूआती सफलता के समय जब सबने यहां तक कि अखबार वालों ने भी उसके लिए कहा था कि वह बुद्धि से काम लेता है और यह सफलता उसके दिमाग का ही कमाल है, तब माँ ने कहा था कि यह प्रेम का कमाल है, पानी के प्रति उसके प्रेम का। उसे अनायास ही माँ की बात याद आ गई और उसकी आंखों से एक बूँद मोती बनकर लुढ़की।
डॉ. मीनाक्षी स्वामी
अभी अभी अपनी कहानी देखी । देखने के दो मिनिट पहले ही आपने पोस्ट लगाई थी । इस कहानी की बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आभार कहकर आत्मीयता को कम नहीं करुंगी । कामना करुंगी कि ऐसी आत्मीयता बनी रहे।
जवाब देंहटाएंबरसात का मूड बढि़या पकड़ में आया है, मीनाक्षी जी को बधाई.
जवाब देंहटाएंमीनाक्षीजी के व्यक्तित्व को नमन..
जवाब देंहटाएंप्रेरणादायी आलेख के लिए बधाई !
जवाब देंहटाएंआभार परिचय एवं पढ़वाने के लिए.
जवाब देंहटाएंआभार, ललित भाई...
जवाब देंहटाएंमॉनसून से पहले ही उसका अहसास कराने का...
डॉ.मीनाक्षी स्वामी की लेखनी से उसी सौंधी खुशबू को महसूस किया जो पहली बरसात के बाद कच्ची मिट्टी से आती है...
जय हिंद...
सुबह सुबह ऐसी सुंदर कहानी प्रस्तुत करने के लिये आभार और मीनाक्षी जी को इतनी सुंदर लेखनी के लिये साधु वाद निश्चित ही बच्चे इस कहानी से प्रेरित होंगे
जवाब देंहटाएंधरती पर पानी बचाने और पानी बढाने की प्रेरणा देने वाली एक अच्छी कहानी के लिए मीनाक्षी जी को और सुंदर प्रस्तुति के लिए आपको बधाई. जल-संरक्षण आज के समय की बहुत बड़ी ज़रूरत है. कहानी में निहित यह सन्देश घर-घर और जन-जन तक पहुंचना चाहिए. बहुत-बहुत आभार .
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कहानी। मीनाक्षी जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंप्रेरणादायी आलेख के लिए बधाई !
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
जवाब देंहटाएंकुछ चुने हुए खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .
acchi kahani ke liye badhayi.......barsat ka bahut acche se vranan kiya hai..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कहानी है .. तभी तो यह मध्यप्रदेश शासन द्वारा 2008 में पुरस्कृत और गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार में एम.ए. हिंदी साहित्य के पाठ्यक्रम में शामिल की गई है .. डॉ मीनाक्षी स्वामी जी को बहुत बहुत बधाई .. ऐसी प्रेरणादायी कहानी पढवाने के लिए आपका आभार !!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कहानी ..मीनाक्षी स्वामी जी को बधाई ...यहाँ पढवाने हेतु आभार
जवाब देंहटाएंgood. very good.
जवाब देंहटाएंप्रेरणा दायक आलेख.
जवाब देंहटाएंपरिचय और प्रस्तुति के लिए आपका आभार ।
जवाब देंहटाएंकहानी बाद में ही पढ़ पाएंगे ।
अरे भाई , शेर सिंह को भी मोडरेशन लगाने की क्या ज़रुरत पड़ गई भाई ?
जवाब देंहटाएंमीनाक्षी जी को बधाई और आपको बहुत धन्यवाद इस प्रेरणादायी पोस्ट के लिए...
जवाब देंहटाएंमिनाक्षी जी को बधाई और आपको आभार इसे पढवाने के लिए। उम्दा कहानी।
जवाब देंहटाएंपानी की टपकती बूंद से प्रारंभ हुई यात्रा डबरी से होते हुए कामयाबी की एक मिसाल बन गयी। एक-एक बूंद करके एकत्रित हुआ जल धरती की प्यास के साथ धरती के प्राणियों की प्यास बुझाएगा। काश! सभी यह सोच पाते और कर पाते।
जवाब देंहटाएंजल संरक्षण निहायत ही जरुरी है। यह कहानी प्रेरणा दायक है।
आभार मीनाक्षी जी।
bahut sunder kahani...vah bhi aise samay padhi jab school me water rechanging ka project banvane ki bat ho rahi hai...abhar.
जवाब देंहटाएंमीनाक्षीजी के व्यक्तित्व को नमन..
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