शाम के समय केमिस्ट के यहाँ दवाई लेने गया, उसके दवाई निकालते थे बरसात शुरु हो चुकी थी। मैं उसकी दुकान के बरामदे में बैठ गया। कुछ लोग भीगने से बचने के लिए और आ गए। तभी सामने से मन्नु ने प्रवेश किया। मुझे देख कर मुस्कुराया और एक तरफ़ खड़ा हो गया। सफ़ारी के साथ बूट पहन रखे थे, मतलब टीप-टाप में था। मुट्ठी में चने ले रखे थे, जिन्हे एक-एक करके चबाते जा रहा था, थोड़ी-थोड़ी देर में मुंह बना रहा था। मैं कुर्सी पर बैठे-बैठे उसकी हरकतें देख रहा था। तभी सामने से एक आदमी आया, मन्नु ने उसकी तरफ़ देखकर मुंह बनाया और मुंह से एक भद्दी सी गाली निकाली मादर........। फ़िर से वह चने चबाने लग गया। 10 मिनट में उसने 10 बार जगह बदली होगी और 50 बार भाव-भंगिमाएं बदली होगी। फ़िर उसके सामने एक लड़की आई, उसे भी देखकर मन्नु ने बुरा मुंह बनाया, दांत किटकिटाए और गाली दी। वह गाली भी इतनी आवाज में देता था कि उसके नजदीक वाला ही सुन पाए। जोर से उसने गाली नहीं दी। मुंह चलाता रहा।
मन्नु एक ड्रायवर है, लोग कहते हैं कि उसका दिमाग खिसक गया है। उट-पटांग हरकतें करता रहता है, उसके बीवी-बच्चे हैं। तीन साल पहले उसने मैनपुर के पास गाड़ी पलटा दी थी, जिसे उठाने के लिए मुझे जाना पड़ा था। उसके बाद से एक दो-बार मुझे और मिला होगा। बरसात होने के कारण मैं बैठा हुआ उसकी हरकतें देख रहा था और सोच रहा था कि क्या यह सचमुच में पागल है? या पागल होने का ढोंग कर रहा है? मुझे शक इसलिए हुआ कि उसने मुझे देखकर मुंह क्यों नहीं बनाया और जो गालियां दुसरों को दे रहा था मुझे क्यों नहीं दी। पागल के लिए तो सब बराबर हैं। अगर उसका दिमाच चल गया होता तो वह सबके साथ एक जैसा ही व्यवहार करता, उसने नहीं किया। कपड़े भी सलीके से ही पहन रखे थे। कभी वह हाथ बांध लेता, तो कभी कमर पर दोनो हाथ रख कर खड़ा होता, कभी सर खुजाता। मतलब मुझे समय व्यतीत करने का साधन मिल गया था।
अचानक उसने थरथरी ली, गर्दन झटकाई, और अपने से बात करने लगा। बड़बड़ाता ही जा रहा था। मैं उसकी बातें सुनने का प्रयत्न कर रहा था लेकिन स्पष्ट कुछ सुनाई नहीं देर रहा था। वह खड़े-खड़े पैरों को झटकारने लगा। फ़िर बंदर जैसे दांत दिखा कर मुंह बनाया। एक चक्कर लगा कर कुर्सी पर बैठ गया। टांगे पसार कर आराम की मुद्रा में सड़क की ओर देख रहा था। कभी अचानक पीछे मुड़ कर दे्खता, उसकी बगल की कुर्सी पर एक महिला बैठी थी। मन्नु ने कुर्सी उसकी तरफ़ से उल्टे तरफ़ घुमा ली। महिला बाहर गांव की थी, उसे इसके विषय में जानकारी नहीं थी, इसलिए वह भी आराम से बैठी हुई थी। वरना कब कि दस हाथ की दूरी बना लेती। मैं सोच रहा था कि मुझसे कुछ बात करेगा, लेकिन वह कुछ ना बोला। कुर्सी पर बैठे-बैठे टांग हिलाने लगा। चने के दाने चबाते रहा। गुद्दी खुजाते रहा।
मै सोच रहा था कि अच्छा भला कमाने-खाने वाला आदमी इस हालत में कैसे पहुंच गया, क्या हाल होगा इसके बीबी बच्चों का? एक औरत पर पूरे घर की जिम्मेदारी आ गयी। यह हकीकत में पागल हुआ है या कमाने से बचने के लिए ढोंग कर रहा है? ऐसा ही एक पागल और भी है, नरायन। वह मेरे साथ प्राथमिक स्तर तक पढा है। फ़िर बरदी (गाय-भैंस) चराने लग गया था। कुछ सालों के बाद वह मन्नु जैसे ही टीप-टाप बाबु साहब बनकर दिन भर घुमता है, बिना इस्तरी के तो कपड़े कभी नहीं पहनता। घुमते रहता है इस दुकान से उस दुकान, इस होटल से उस होटल। होटल वाले मुफ़्त में चाय नास्ता करा देतें है। कौन अप-टु-डेट पागल के मुंह लगे। इसका फ़ायदा वह भरपुर उठाता है। पुरे गांव वालों को शक है कि वह पागल नहीं है, कमाने के डर में पागलपन का नाटक कर रहा है। बड़े भाग मानुष तन पावा, कमाए के डर में बने पागल बाबा। लोग ऐसे कहते हैं। यह मन्नु जैसे गाली नहीं बकता और अपने से बात नहीं करता।
मैने एक नयी बिमारी का नाम सुना। जिसे वर्क सिकनेस कहा गया है। सिंकारा का विज्ञापन (काम के बोझ का मारा, यह बेचारा, इसे चाहिए हमदर्द का.........) रह-रह कर याद आता है। वर्तमान में लोगों पर कमाई का बोझ बढ गया है। आज हर आदमी चाहता है कि घर में भौतिक सुख का सामान होना चाहिए। टीवी, कूलर, डीवीडी, डिश, एन्टीना, मोबाईल एवं बाईक हर घर में होना चाहिए। कम आमदनी वाले मजदूर भी अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में नहीं पढाना चाहते। अच्छा पहनना ओढना चाहिए, चाहे इसके लिए दिन-रात एक करना पड़े। अतिरिक्त कमाने के लिए झूठ-फ़रेब, चोरी-ठगी भी करनी पड़े तो चलेगा। लेकिन धन चाहिए, तभी जमाने के साथ चल सकेगा। यही तनाव एक दिन सिर चढ कर बोलता है और इसी तनाव का एक झटका कब मन्नु और नरायन बना दे पता नहीं चलता। बस लोग तो कह देते हैं, पागल हो गया है, इसका दिमाग खिसक गया, चल गया है। लेकिन उसके परिवार पर क्या बीत रही है, सिर्फ़ उसका परिवार ही जानता है।
NH-30 सड़क गंगा की सैर
आज हर आदमी चाहता है कि घर में भौतिक सुख का सामान होना चाहिए।
जवाब देंहटाएंजीवन को जीने के लिए हमें अपनी आवश्यकताएं देखनी चाहिए लेकिन हम दूसरों को देखकर जब जीवन जीना शुरू कर देते हैं तो फिर यही हाल होता है .....!
सब अपने-अपने किस्म के भगत हैं, जगत कहय भगत बइहा...
जवाब देंहटाएंएक पुरानी फिल्म का गीत है...
जवाब देंहटाएंदुनिया कहती मुझको पागल
मैं कहता दुनिया पागल....
क्या कह सकते है ! कोई पागल का नाटक कर लेता है तो कोई थोड़ी सी शराब मुंह को लगाकर शराबी होने का नाटक कर अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्ति पा लेता है पर जो मुसीबत उसके बच्चों को झेलनी पड़ती है वो तो वो ही महसूस कर सकते है |
जवाब देंहटाएंहर इंसा खिसका हुआ है पागल है
जवाब देंहटाएंकोई कम है कोई ज़्यादा है
ऐसा कभी न हो यदि आदमी इस पर अमल करे
जवाब देंहटाएंरूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी।
देख पराई चूपड़ी मत ललचाए जी॥
अच्छा किस्सा।
जवाब देंहटाएंहर इंसान कहीं न कहीं से थोडा न थोडा पागल होता है
आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (25.06.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
जवाब देंहटाएंचर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
दुनिया में तरह तरह के लोग होते हैं । कभी कभी नज़रें भी धोखा खा जाती हैं ।
जवाब देंहटाएंसच है, बड़े भाग मानुष तन पावा।
जवाब देंहटाएंsuperb observation, matchless analysis. kudos !!
जवाब देंहटाएंinsaan khud se pagal nahi huya...halat aise bane hai uske...
जवाब देंहटाएं(काम के बोझ का मारा, यह बेचारा, इसे चाहिए हमदर्द का.........)
कठिन हुआ है जीवन जीना...मूल्य बदले तो जीने के समीकरण भी बदल गये और ऐसे कितने ही मुन्नु और नारायण हर मुहल्ले में ऊग आये.
जवाब देंहटाएंक्या से क्या हो जाता है इस अंधी दौड़ में ...
जवाब देंहटाएंवर्तमान का यथार्थ ....विचारणीय....
जवाब देंहटाएंइस आधुनिक बीमारी का परिणाम घर वाले भुगतते हैं।
जवाब देंहटाएंसमाज के एक और कमजोर नब्ज को पहचाना है आपने।
सच्चाई को दर्शाती हुई रचना क्या यही हमारी आधुनिकता है क्या हासिल होगा ?
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