गुरुवार, 24 जनवरी 2013

तिब्बत से निर्वासन की टीस बाकी है आज तक ………

मैनपाट पर पहुचने पर एक स्थान पर दूर से ही हवा में लहराती हुई रंग बिरंगी पताकाएं दिखाई देने लगी। लगभग 12 बजने को थे। पताकाओं लिखे तिब्बती बौद्ध प्रार्थना मंत्र हवा के माध्यम से प्रसारित हो रहे थे। बस मुझे तो इस गाँव में पहुंचना है। साथियों को चेता दिया मैने। छत्तीसगढ अंचल में बनने वाले कवेलू और मिट्टी के घरों को चटक भड़कीले रंगो से पोता गया था। दूर से ही देखने से पता चल जाता है कि यह कोई तिब्बती बस्ती है। जब मैं धर्मशाला गया था तब वहाँ से लौटते हुए बस में एक तिब्बती सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर से मुलाकात हुई थी। रास्ते में धर्मशाला से खजियार तक मेरी उनसे तिब्बत के विषय पर चर्चा हुई। जिससे तिब्बतियों के विषय में भरपूर जानकारी मिली।
मोनेस्ट्री की दीवार पर तिब्बती भाषा
इस तिब्बतियों की बस्ती को कमलेश्वरपुर कह्ते हैं एवं शरणार्थियों की बसाहट के हिसाब से इसे कैम्प नम्बर 2 नाम दिया गया है। यहाँ प्रार्थना करने के लिए छोटा मठ भी है। मंदिर परिसर में मैने छोटे मनौती स्तूपों से लेकर एक दीवार पर निर्मित सहस्त्र बुद्ध प्रतिमाएं भी देखी। मैनपाट में तिब्बतियों के 7 कैम्प हैं। प्रत्येक कैम्प का एक मुखिया है और सभी 7 कैम्पों  का एक प्रधान मुखिया है। यहाँ से निर्वासित तिब्बती सरकार का एक सांसद चुना जाता है। शरणार्थी होने के कारण ये भारत के निर्वाचन में मतदान नहीं कर सकते। भारत में इनकी  कई पीढियाँ हो चुकी है फ़िर भी इन्होने बांग्लादेशियों  जैसे भारत की नागरिकता के लिए कोई आवेदन नहीं किया है। इनकी आशा अभी तक लगी हुई है कि चीन से तिब्बत को आजादी मिलने के बाद अपने वतन को वापस चले जाएगें।
तिब्बतियों के गाँव की सुनसान गली
इस कैम्प में मेरी मुलाकात तिब्बतियों के बुजुर्ग लोतेन से होती है। मैं गलियों में घुमते हुए उनके घर के पास पहुचता हूँ। टीन शेड का सुंदर मकान में बड़ा सा आंगन है। आँगन के भीतर एक मचान पर खाल में भुसा भरा हुआ बछड़ा रखा है। एक अरसे के बाद यह दृश्य देखने मिला। शावक की मौत होने पर भैंस या गाय दूध देना बंद कर देती  हैं। इसलिए उस शावक की खाल में भूसा भरवा कर उसके समक्ष रखने से भैंस और गाय दूध देने लगती हैं। इस बछड़े के पुतले का उपयोग इसी प्रयोजन से किया जाता है। एक मचान पर मक्का के भुट्टे सुखाने के लिए लटकाए हुए थे। आँगन में धान सुखाया हुआ था जिसे दो मजदूर बोरों में भरकर घर के भीतर रख रहे थे। इससे जाहिर होता है कि तिब्बती खेती करने में भी माहिर हैं।
सरसों की फ़सल एवं हवा में तैरती मंत्र पताकाएं
तिब्बतियों का यह गाँव सुनसान दिख रहा था। सिर्फ़ कुछ बुजुर्ग एवं कुछ बच्चे ही दिखाई दे रहे थे। मुझे देखकर लोतेन की  पत्नी कुर्सियाँ लेकर आती है और 1942 में तिब्बत के खम्नांचिन में जन्मे लोतेन मेरे पास आकर बैठ जाते हैं। उनसे चर्चा प्रारंभ होती है। वे बताते हैं कि तिब्बत 1961 में निर्वासित होने के बाद सबसे पहले वे नेपाल के मोनकोट में आए। उसके पश्चात 1963 में नेपाल से भारत में प्रवेश किया। इनके परिवार ने नेपाल से भारत में पैदल ही प्रवेश किया। तब भारत सरकार ने इन्हे शरणार्थी मान कर भारत में शरण दी। ठंडे प्रदेशों में रहने के कारण तिब्बतियों की भारत की गर्म जलवायु रास नहीं आई। जिससे कईयों की मृत्यु हो गयी। दलाई लामा के प्रयास से भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने भारत के प्रदेशों में ठंडे स्थान की खोज करवा कर वह स्थान इनके रहने के लिए आबंटित किए।
सहस्त्र बुद्ध 
उनमें से एक स्थान छत्तीसगढ का मैनपाट भी था। मैनपाट में तिब्बतियों की बसाहट 1965 में हुई। एक परिवार के 7 सदस्यों के हिसाब से इन्हे जीवन यापन के लिए 5 एकड़ भूमि दी गयी। मकान बनाकर देने के साथ 3 साल तक फ़्री राशन दिया गया। लोतेन भारत सरकार का आभार व्यक्त करते हैं। वे बताते हैं कि इन्होने ने यहाँ आलू, मक्का, टाऊ आदि की कम पानी की खपत वाली फ़सलें लगाना प्रारंभ किया। जिससे जीवन यापन होने लगा। साथ ही कालीन एवं स्वेटर का निर्माण का परम्परागत व्यवसाय भी प्रारंभ किया गया। महिलाएं हाथ से स्वेटर बनाकर अम्बिकापुर में बेचकर आती थी। अब हाथ की बनी मोटी स्वेटर को कोई पहनता नहीं है। इसलिए लुधियाना से मशीन की बनी हुई स्वेटर लाई जाती है। अभी गाँव के सारे जवान स्त्री पुरुष स्वेटर बेचने के लिए छत्तीसगढ एवं मध्य प्रदेश के अन्य शहरों में गए हुए हैं।
बौद्ध मठ  की पीठिका
लोतेन की उत्त्मार्ध चाय बनाकर ले आती हैं। चीनी बड़े-बड़े मग चाय के भरे हुए थे। एक कप चाय पीना कठिन था। लेकिन उनके आग्रह को देखते हुए चाय पीनी पड़ी। उन्होने बताया कि सारे कैम्पों मे। लगभग ढाई हजार तिब्बती निवास करते हैं। यहाँ पर परम्परागत तिब्बती औषधियों से युक्त अस्पताल भी है। जिसमें धर्मशाला से तिब्बती डॉक्टर आकर ईलाज करते  हैं। कैम्प नम्बर 1 में मुख्य मठ है जहाँ लामा निवास करते हैं। मुख्य धार्मिक कर्मकांड वहीं सम्पन्न कराए जाते हैं। उन्होने मुझे अपना और पत्नी का पासपोर्ट दिखाया जिसमें उनका  नाम पता एवं उम्र के साथ नेपाल के रास्ते पैदल भारत आने का विवरण दर्ज है। यह भारतीय पासपोर्ट इन्हे भारत का शरणार्थी होने का जिक्र करते हुए जारी किया गया।
लोतेन के साथ यायावर 
मै लोतेन से चर्चा कर रहा था और राहुल, पंकज एवं विष्णु वहाँ से गायब हो चुके थे। शायद मेरी और लोतेन की चर्चा उन्हे निरर्थक लगी होगी। क्योंकि यह चर्चा उनके कोई काम की नहीं थी। ये निर्वासित लोग बड़ी मेहनत के बाद परदेश में अपने जीवन की गाड़ी को पटरी पर लेकर आए हैं। एक बात गौर करने योग्य है। 50 बरस बाद भी इन लोगों ने अपनी भाषा, कर्मकांड, संस्कृति को नहीं छोड़ा है। मैनपाट में तिब्बतियों के लिए केन्द्रीय स्कुल है, जहाँ पढाई 8 वीं तक होती है इसके पश्चात आगे की कक्षाओं की पढाई के लिए हिमाचल प्रदेश स्थित धर्मशाला जाना पड़ता है। मैनपाट स्थित तिब्बतियों का संबंध इनकी निर्वासित सरकार के साथ सतत बना रहता है। उनके निर्देशों के अलावा भारत सरकार के कानूनों का पालन करते हैं। अपनी मिट्टी से उजड़ने का दर्द इनके मन को कचोटता है। दर्द इनकी आँखों में स्पष्ट झलकता है। भले ही यहाँ जन्म लेने वाली इनकी अगली पीढी ने तिब्बत नहीं देखा पर जंतर मंतर तक तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए इनकी आवाज गुंजती  है।
इहै है सिक्छा कर्मी परतापपुर के
लोतेन से विदा लेकर बाहर गली में निकला तो ये चारों गायब थे। गलियों में दूर-दूर तक दिखाई नहीं दिए। मै पैदल ही पैदल मोनेस्ट्री तक आ गया। वहाँ लगी मूर्तियों को निहारने लगा। थोड़ा समय व्यतीत होने पर आगे बढा तो एक चौराहा दिखाई दिया। जहाँ सायकिल की दुकान पर कुछ तिब्बती युवा महफ़िल जमाए हुए थे। समीप ही आदिमजाति कल्याण विभाग का छात्रावास था। छात्रावास के मैदान में बड़ी बड़ी घास उगी हुई थी। वातावरण में ठंडक होने के कारण शिक्षक ने अपनी कुर्सी मैदान में ही डाल रखी थी। बच्चे सब खेल रहे थे। मैंने आश्रम परिसर में प्रवेश किया और शिक्षक के पास पहुंचा। उसने मेरे आगमन पर कोई ध्यान नहीं दिया। टेबल पर रखे रजिस्टर में कुछ लिखता रहा। चर्चा करने पर पता चला कि एक शिक्षा कर्मी है और प्रतापपुर से यहाँ पढाने के लिए आता है। इतनी देर में पंकज का फ़ोन आ गया कि वे गरम समोसे बनवा कर ला रहे हैं। थोड़ी देर में आ पहुंचे और हम टाईगर प्वांईट की ओर चल पड़े।

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6 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसा लगा जैसे मैं मैनपाट की गलियों और घरों में आपके साथ घूम रहा हूँ। मुझे बहुत भा रही है आपकी यायावरी। बहुत सी नई जानकारियाँ आप हमें दे रहे हैं, धन्यवाद ललित जी।

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  2. तिब्बत के बारे में जब भी पढ़ो तो हमेशा ही ऐसा लगता है यह चीन में क्यूँ चला गया इसे तो अपने यहाँ ही होना था :)

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  3. अपनी भूमि से बिछड़ने का दुख असहनीय होता है..

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  4. भले ही यहाँ जन्म लेने वाली इनकी अगली पीढी ने तिब्बत नहीं देखा पर जंतर मंतर तक तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए इनकी आवाज गुंजती है

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