शैवों एवं वैष्णवों पंथों के आपसी वर्चस्व की लड़ाई ने हिन्दू धर्म की बहुत हानि हुई। आपसी संघर्ष में भारी रक्तपात एवं एक दूसरे के पूजा स्थलों का नुकसान पहुंचाना भी सम्मिलित था। यह अनेकेश्वर वाद की देन प्रतीत होता है। वैसे तो हमारा दर्शन कहता है कि ईश्वर एक है, परन्तु इन पंथों की आपसी की वर्चस्व की लड़ाई ने अनेक देवता उत्पन्न कर दिए। एकेश्वर से बहुदेववाद चल पड़ा। हजारों वर्षों तक चले झगड़े में शैव एवं वैष्णव नामक दो धाराओं में खूब रक्तपात हुआ तथा इसी के चलते शाक्त धर्म की उत्पत्ति हुई। जिसने दोनो सम्प्रदायों में समन्वय का काम किया।
शैव एवं वैष्णव सम्प्रदाय के मिलन का प्रतीक संघाट नंदी एवं गज विट्ठल मंदिर हम्पी कर्णाटक |
जब आपस में मिलन हुआ तो वर्तमान में स्थिति यह है कि शैव, शाक्त एवं वैष्णवों में पता नहीं चलता कि कौन किस सम्प्रदाय का अनुशरणकर्ता है। कहा जाता है कि इनके समन्वय में अत्रिपुत्र दत्तात्रेय का प्रमुख स्थान है। इसके पश्चात में इनमें समन्व्य का कार्य आदि शंकराचार्य के हाथों हुआ। जब बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म के विस्तार के कारण हिन्दू धर्म का ह्रास हो रहा था। दीर्घावधि के प्रयास के पश्चात कालांतर में समन्यव ऐसा हुआ कि मंदिर निर्माण की पंचायतन शैली विकसित हुई। मूल देवता के मुख्य मन्दिर के साथ चारों कोनों में अन्य अनुषांगी देवों के मंदिर एक ही परिसर में बनने लगे। इसे पंचायतन शैली कहा गया। यह भी हम मान सकते हैं कि उत्तर एवं दक्षिण का मिलन हुआ।
हरिहर की संघाट प्रतिमा छत्तीसगढ़ पाली नवमी शताब्दी |
आज हम देखते हैं कि शिवालयों में भित्तियों पर वैष्णव पंथ के देवताओं की उपस्थिति दिखाई देती है। शिवालयों में गर्भगृह के द्वारपट पर दशावतारों का अंकन प्रमुखता से दिखाई देता है, जिसमें विष्णु के अवतारों को स्थान दिया जाता है। वैष्णव मंदिरों में शिव परिवार के गणपति की उपस्थिति प्रमुखता से दिखाई देती है तथा कार्तिकेय एवं कीर्तिमुख भी हमें वैष्णव मंदिरों में दिखाई देते हैं। जो कालांतर में शिल्प परम्परा का आवश्यक अंग बन गए। दश दिक्पाल, सप्तमातृकाएँ महिषसुरमर्दनी की प्रतिमाएँ भी प्राचीन शिवालयों में प्रमुखता से दिखाई देती है। इसके पश्चात पुराणों और स्मृतियों के आधार पर जीवन-यापन करने वाले लोगों का संप्रदाय बना जिसे स्मार्त संप्रदाय कहते हैं।
सपरिवार हरिहर मिलन राजा रवि वर्मा का चित्र |
प्रतिमा शिल्प में भी संघाट प्रतिमाओं का निर्माण प्रारंभ हुआ, जिसमें हरिहर, हरिहरार्क, त्रिदेव एवं हरिहरार्कब्रह्म की प्रतिमाएँ भी हमे मिलती हैं। छत्तीसगढ़ के मुंगेली जिले अंतर्गत मदकूद्वीप के उत्खनन में हम्रें स्मार्त लिंग प्राप्त होते हैं। पंकज दीक्षित जी Pankaj Dixit द्वारा लगाए गए चित्र ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया जिसमें गजारुढ़ विष्णु लक्ष्मी तथा नंदी सवार शिव पार्वती दिखाई दे रहे हैं। चित्रकार ने गज एवं नंदी को ऐसे चित्रित किया है कि दोनों के शीश आपस में मिले हुए हैं। ध्यान से देखने पर ही दोनो अलग दिखाई देते हैं। एक तरफ़ से गजमुख एवं दूसरी तरफ़ से नंदी मुख। यह दोनों सम्प्रदायों के मिलन के प्रतीक के रुप में देखा जा सकता है।
हनुमान द्वारा शिवार्चन फ़णीकेश्वर महादेव फ़िंगेश्वर छत्तीसगढ़ परवर्ती काल |
पंचायतन मंदिर शैली के अतिरिक्त में शिल्प में हरिहर की प्रतिमा हमें छतीसगढ़ के पाली स्थित शिवालय की भित्ति से प्राप्त होती है। राजिम फ़िंगेश्वर शिवालय फ़णीकेश्वर महादेव में भित्ति जड़ित एक प्रतिमा में हनुमान को शिवार्चना करते दिखाया गया है। मदकूद्वीप से हमें संघाट प्रतिमा के रुप में स्मार्त लिंग प्राप्त होता है। हम्पी के विट्ठल मंदिर एवं हजारा राम मंदिर में मुझे नंदी एवं गज की संघाट प्रतिमा मिलती है। यह सब शैव एवं वैष्णव सम्प्रदायों के सम्मिलन के प्रतीक चिन्ह हैं। जब दोनो सम्प्रदाय एकाकार हुए तब इस दर्शाने के लिए संघाट प्रतिमाओं का निर्माण प्रारंभ हुआ। हो सके यह आपको अन्य मंदिरों में भी दिखाई दे, जरा ध्यान दीजिएगा।
दिलचस्प जानकारी। आगे से ऐसी प्रतिमाओं की तरफ ध्यान दूँगा।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा
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