उत्सवों एवं उसकी रचनाधर्मिता से मनुष्य का आदिकाल से नाता रहा है, जिसकी प्राचीनता के प्रमाण हमें शैल चित्रों एवं भित्ति चित्रों के माध्यम से मिलते हैं। हमारे प्रत्येक पर्वों में मांडणे का अत्यंत महत्व है, जिसे हम पर्व की मान्यता के अनुसार मांडते हैं। ऐसा ही एक पर्व मुझे देखने मिला संजा बाई, जिसे मालवा एवं निमाड़ अंचल में कुँवारी बालाओं द्वारा मनाया जाता है।
मान्यता है कि संजाबाई पार्वती जी का ही एक रूप है। जिनकी श्राद्धपक्ष में सोलह दिनों तक पूजा की जाती है। भारत के कई प्रांतों में संजा अलग-अलग रूप में पूजी जाती है। महाराष्ट्र में यही संजा ‘गुलाबाई, फ़ूलाबाई’ बनकर एक माह तक अपने पीहर में रहती है तो वही राजस्थान में ‘संजाया’के रूप में श्राद्ध पक्ष में यह कुँवारी लड़कियों की सखी बन उनके साथ सोलह दिन बिताती है। कुँवारी लड़कियाँ संजाबाई की पूजा अच्छे वर की प्राप्ति के लिए करती है।
भाद्रपद माह के शुक्ल पूर्णिमा से पितृमोक्ष अमावस्या तक पितृपक्ष में कुंआरी कन्याओं द्वारा मनाया जाने वाला पर्व है। यह पर्व मुख्य रूप से मालवा-निमाड़, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र आदि में मनाया जाता है। संजा पर्व में श्राद्ध के सोलह ही दिनकुंवारी कन्याएँ शाम के समय एक स्थान पर एकत्रित होकर गोबर के मांडने मांडती हैं और संजा के गीत गाती हैं व संजा की आरती कर प्रसाद बांटती हैं। सोलह ही दिन तक कुंवारी कन्याएँ गोबर के अलग-अलग मांडने मांडती है तथा हर दिन का एक अलग गीत भी होता है।
मालवा में ‘संजा’ का क्रम पाँच (पंचमी) से आरंभ होता है। पाँच पाचे या पूनम पाटला से। दूसरे दिन इन्हें मिटाकर बिजौर, तीसरे दिन घेवर, चौथे दिन चौपड़ और पंचमी को ‘पाँच कुँवारे’ बनाए जाते हैं। लोक कहावत के मुताबिक जन्म से छठे दिन विधाता किस्मत का लेखा लिखते हैं, जिसका प्रतीक है छबड़ी।
सातवें दिन सात्या (स्वस्तिक) या आसमान के सितारों में सप्तऋषि, आठवे दिन ‘अठफूल’, नवें दिन ‘वृद्धातिथि’ होने से डोकरा-डोकरी और दसवें दिन वंदनवार बाँधते हैं। ग्यारहवें दिन केले का पेड़ तो बारहवें दिन मोर-मोरनी या जलेबी की जोड़ मँडती है। तेरहवें दिन शुरू होता है किलाकोट, जिसमें 12 दिन बनाई गई आकृतियों के साथ नई आकृतियों का भी समावेश होता है।
इन सोलह दिनों पितृ तर्पण के साथ संजा का उत्सव पितरों की याद की उदासी को उत्सव में बदल देता है। भित्ति पर मांडी गई संजा की पूजा करने के बाद प्रसाद बांटा जाता है। बालिकाएँ इस उत्सव को मनाकर प्रसन्नता प्रकट करती हैं तथा संजा उत्सव के नाम पर आज भी प्राचीन परम्परा को अक्षुण्ण रखना ही बड़ी बात है, वरना लोक परम्पराओं का लोपन गोपन हो जाना कोई बड़ी बात नहीं हैं, इसे जनमानस में जीवित रखना बड़ा काम है। इसके साथ ही गोबर से बनाई जाने वाली भित्ति चित्रकला भी उत्सव के माध्यम से बची हुई है जो पुर्वजों की आदिम कला से हमें जोड़ती है।
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