तभी एक व्यक्ति आकर कहने लगा-" धन्य हैं आप! आपने जीवन सार्थक कर लिया. छ: हजार गीत रचे. आप तो तृप्त हो गए. संसार के लिए एक अनूठी धरोहर छोड़ी है आपने".
गुरुदेव ने आँखें खोली और नम्रता से बोले-" तृप्त कहाँ हुआ? मेरा प्रत्येक गीत अधुरा ही रहा. जो मेरे उदगार थे, वे तो मेरे अन्दर अभी भी अटके हुए हैं.
ये छ: हजार गीत तो उस दिशा में की गई मात्र असफल चेष्टाएँ है. उन उदगारों को बाहर लाने का प्रयास भर हैं.
मैंने छ: हजार बार कोशिशें की किन्तु वह गीत अधुरा ही रहा जिससे मैं गाना चाहता था. उस गीत को,
उस उदगार को गाने का प्रयास करने में ही था की तब तक बुलावा आ गया". गीत अधुरा रह गया.
बहुत सुन्दर पोस्ट ललित जी!
जवाब देंहटाएंसंसार में भला क्या कोई कभी तृप्त हो सकता है?
सच कहा उन्होने...सृजनतमकता कभी पूरी नहीं होती... हर समय यही लगता है की और बेहतर लिखा जा सकता था
जवाब देंहटाएंअच्छा प्रसंग लाये हैं, आभार!!
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी दी आपने ..
जवाब देंहटाएं'परम अभिव्यक्ति' के न हो पाने की
कसक बहुत सालती है , यही कसक
कवि मुक्तिबोध को भी परेशान करती रही ..
........ आभार ,,,
सही कहा आपने, यही भावना तो आदमी को श्रेष्ठतम बनाती है।
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