बचपन में अपने कदमो से पूरे गांव को नापते दो चार लोगों को सायकिल चलाते हुए देखते थे तो लगता था कि अगर हमें भी सायकिल चलाना आ जाए तो हमारे पैरों में भी चक्के लग जाएँ।
हमारे घर में दो-दो सायकिलें थी और एक रायल इनफिल्ड मोटर सायकिल, एक वैली जीप सब अपनी-अपनी गाड़ियाँ चलाते थे, लेकिन मुझे सायकिल चलाने कोई नही देता था.
चौथी कक्षा में पढता था. पुरजोर कोशिश करता था कि कोई मुझे सायकिल चलानी सिखाये. उस समय सायकिल चलाना भी एक सरकस की कलाकारी से काम नहीं था.
जिस तरह सरकस के करतब को हम दांतों तले उंगली दबा कर चकित होकर देखते थे उसी तरह से लोग उस समय सायकिल चालक को देखते थे.
मैंने भी सायकिल चलाने की जिद पकड़ रखी थी. किसी तरह एक बार हाथ आ जाये बस फिर तो क्या? मैं भी उड़ता ही फिरूंगा किसी फिरंगी की तरह।
हमारी सायकिल हरक्युलिस कम्पनी की २४ इंच की थी. उस समय लोग सायकिल की हिफाजत अपनी जान से भी ज्यादा करते थे. बैठे-बैठे उसे मोड़ते भी नहीं थे. जब सायकिल मोड़ना होता था तो उतरकर उसे पूरी इज्जत बख्शते हुए जमीन से अधर उठा कर मोड़ा-घुमाया जाता था. मेरी इतनी ऊंचाई नहीं थी कि सायकिल को संभाल सकूँ.
लेकिन एक दिन मैं अपने इरादों में कामयाब हो गया. पापा जी कहीं गए हुए थे. उस दिन कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जो मुझे रोके टोके. बस मैंने धीरे से सायकिल उठाई और हैंडल पकड़ कर धीरे-धीरे बाहर निकाला,
हमारा घर चार एकड़ के प्लाट में है. और बाउंड्री के अन्दर ही बहुत जगह है सायकिल चलाने के लिए. सड़क और मैदान में जाने की जरुरत ही नहीं थी. बस सायकिल मिल जाने से कल्पनाओं को पंख मिल गए और मैं उड़ान के लिए तैयार.
लेकिन जैसे ही एक हाथ से सीट और एक हाथ से हैंडिल पकड कर सायकिल के पैडल पर पैर रखा. हो गया "धडाम". आवाज सुन कर नौकर दौड़े. मैं सायकिल के नीचे दबा हुआ था. उन्होंने निकाला. सायकिल उठाई, देखा तो सायकिल का एक पैडल भी मूड गया था.
अब वो चैन कव्हर में फँस गया था. बस मेरी तो हवा बंद हो गई. अब पापाजी को पता चल जायेगा और आज डांट पक्की है. मेरे घुटने फुट गए थे. खून रिस रहा था.
दादी ने देखा तो दवाई लगायी, और डांट लगायी अब फिर ऐसा मत करना. लेकिन मुझे लगता था उस दिन वो भीतर ही भीतर खुश थी कि मेरा पोता इतना बड़ा हो गया कि सायकिल चलाने के लिए हाथ मार रहा है.
मैं सायकिल प्रेम में डूब चुका था अब वो सायकिल मुझे सपने में भी दिखती थी और मैं उसे चलाने की कोशिश करता था.
जब यह कांड पापाजी को पता चला तो उन्होंने मुझे डांट पिलाई और कहा की मत चलाना नहीं तो किसी दिन गिरकर हाथ और टूट जायेंगे. मैंने सर हिला दिया.
लेकिन पापा जी को पता था कि ये भले ही अभी सर हिला रहा है लेकिन मानेगा नहीं मौका देखकर फिर हाथ आजमाएगा. तो उन्होंने कहा कि तुम जोईधा (हमारा नौकर) को साथ लेकर चलाना.
लेकिन स्कुल का गृहकार्य करने के बाद पूरा एक घंटा मिलेगा. फिर क्या था? रोज स्कुल से आते ही खाना खाकर गृहकार्य करता और फिर जोईधा को साथ लेकर प्रशिक्षण शुरू हो जाता.
जोईधा सायकिल का हैंडिल संभालता और मै कैंची (क्रास) पैडल मारता. अब रोज ऐसे ही सायकिल चलाते. लेकिन मुझे तो सायकिल का पूरा नियंत्रण अपने हाथ में लेना था. जब नियंत्रण अपने हाथ में होगा तो उसका मजा ही अलग है. इस तरह लग-भग 6 महीने निकल गए. फिर मैंने एक दिन चुपके से सायकिल निकाली और कैंची चलाने के लिए फ्रेम के बीच से पैर डाल पैडल मारा. वह फिर क्या था? मैंने स्वयं के नियंत्रण में सायकिल 50 फुट तक चलाई, उसके बाद फिर "धडाम".
लेकिन उस दिन 50 फुट जो सायकिल पहली बार मैंने स्वयं के नियंत्रण में चलाई उस रोमांच का वर्णन करने लिए आज भी मेरे पास शब्द नहीं है. बहुत खुश था मै. क्योंकि जो गुरूजी मुझे पढ़ाते थे उन्हें सायकिल चलाना नहीं आता था और मैं सीख गया था. अपनी ये ख़ुशी मैं सबके साथ बाँटना चाहता था. दोस्तों को बताना चाहता था कि मैंने आज सायकिल चलाई. फिर सोचता था मुझे सायकिल चलते हुए किस किस ने देखा? जो मुझे शाबासी देंगे कि आज तुमने सायकिल चला ली. नीलआर्मस्ट्रांग ने जो ख़ुशी चाँद की धरती पर पैर रखने पर पाई होगी वही ख़ुशी मैं उस दिन सायकिल चला कर पाई थी.
मैंने सभी को ख़ुशी से बताया कि अब सायकिल चला लेता हूँ. लेकिन चलाते हुए सिर्फ मेरे छोटे भाई ने ही देखा था. दुसरे दिन फिर सभी को इकट्ठा कर मैंने सबके सामने 200 फुट सायकिल चलायी. अब मैंने जता दिया था कि मै अब सायकिल चलाना सीख गया हूँ .
आज सायकिल ही घरों से गायब हो गयी है. सायकिल जगह मोटर सायकिल ने ले ली एक एक घर में चार-चार मोटर सायकिलें है. लेकिन जो आनंद सायकिल चलाने का था वो किसी और में कहाँ?
हमारे घर में दो-दो सायकिलें थी और एक रायल इनफिल्ड मोटर सायकिल, एक वैली जीप सब अपनी-अपनी गाड़ियाँ चलाते थे, लेकिन मुझे सायकिल चलाने कोई नही देता था.
चौथी कक्षा में पढता था. पुरजोर कोशिश करता था कि कोई मुझे सायकिल चलानी सिखाये. उस समय सायकिल चलाना भी एक सरकस की कलाकारी से काम नहीं था.
जिस तरह सरकस के करतब को हम दांतों तले उंगली दबा कर चकित होकर देखते थे उसी तरह से लोग उस समय सायकिल चालक को देखते थे.
मैंने भी सायकिल चलाने की जिद पकड़ रखी थी. किसी तरह एक बार हाथ आ जाये बस फिर तो क्या? मैं भी उड़ता ही फिरूंगा किसी फिरंगी की तरह।
हमारी सायकिल हरक्युलिस कम्पनी की २४ इंच की थी. उस समय लोग सायकिल की हिफाजत अपनी जान से भी ज्यादा करते थे. बैठे-बैठे उसे मोड़ते भी नहीं थे. जब सायकिल मोड़ना होता था तो उतरकर उसे पूरी इज्जत बख्शते हुए जमीन से अधर उठा कर मोड़ा-घुमाया जाता था. मेरी इतनी ऊंचाई नहीं थी कि सायकिल को संभाल सकूँ.
लेकिन एक दिन मैं अपने इरादों में कामयाब हो गया. पापा जी कहीं गए हुए थे. उस दिन कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जो मुझे रोके टोके. बस मैंने धीरे से सायकिल उठाई और हैंडल पकड़ कर धीरे-धीरे बाहर निकाला,
हमारा घर चार एकड़ के प्लाट में है. और बाउंड्री के अन्दर ही बहुत जगह है सायकिल चलाने के लिए. सड़क और मैदान में जाने की जरुरत ही नहीं थी. बस सायकिल मिल जाने से कल्पनाओं को पंख मिल गए और मैं उड़ान के लिए तैयार.
लेकिन जैसे ही एक हाथ से सीट और एक हाथ से हैंडिल पकड कर सायकिल के पैडल पर पैर रखा. हो गया "धडाम". आवाज सुन कर नौकर दौड़े. मैं सायकिल के नीचे दबा हुआ था. उन्होंने निकाला. सायकिल उठाई, देखा तो सायकिल का एक पैडल भी मूड गया था.
अब वो चैन कव्हर में फँस गया था. बस मेरी तो हवा बंद हो गई. अब पापाजी को पता चल जायेगा और आज डांट पक्की है. मेरे घुटने फुट गए थे. खून रिस रहा था.
दादी ने देखा तो दवाई लगायी, और डांट लगायी अब फिर ऐसा मत करना. लेकिन मुझे लगता था उस दिन वो भीतर ही भीतर खुश थी कि मेरा पोता इतना बड़ा हो गया कि सायकिल चलाने के लिए हाथ मार रहा है.
मैं सायकिल प्रेम में डूब चुका था अब वो सायकिल मुझे सपने में भी दिखती थी और मैं उसे चलाने की कोशिश करता था.
जब यह कांड पापाजी को पता चला तो उन्होंने मुझे डांट पिलाई और कहा की मत चलाना नहीं तो किसी दिन गिरकर हाथ और टूट जायेंगे. मैंने सर हिला दिया.
लेकिन पापा जी को पता था कि ये भले ही अभी सर हिला रहा है लेकिन मानेगा नहीं मौका देखकर फिर हाथ आजमाएगा. तो उन्होंने कहा कि तुम जोईधा (हमारा नौकर) को साथ लेकर चलाना.
लेकिन स्कुल का गृहकार्य करने के बाद पूरा एक घंटा मिलेगा. फिर क्या था? रोज स्कुल से आते ही खाना खाकर गृहकार्य करता और फिर जोईधा को साथ लेकर प्रशिक्षण शुरू हो जाता.
जोईधा सायकिल का हैंडिल संभालता और मै कैंची (क्रास) पैडल मारता. अब रोज ऐसे ही सायकिल चलाते. लेकिन मुझे तो सायकिल का पूरा नियंत्रण अपने हाथ में लेना था. जब नियंत्रण अपने हाथ में होगा तो उसका मजा ही अलग है. इस तरह लग-भग 6 महीने निकल गए. फिर मैंने एक दिन चुपके से सायकिल निकाली और कैंची चलाने के लिए फ्रेम के बीच से पैर डाल पैडल मारा. वह फिर क्या था? मैंने स्वयं के नियंत्रण में सायकिल 50 फुट तक चलाई, उसके बाद फिर "धडाम".
लेकिन उस दिन 50 फुट जो सायकिल पहली बार मैंने स्वयं के नियंत्रण में चलाई उस रोमांच का वर्णन करने लिए आज भी मेरे पास शब्द नहीं है. बहुत खुश था मै. क्योंकि जो गुरूजी मुझे पढ़ाते थे उन्हें सायकिल चलाना नहीं आता था और मैं सीख गया था. अपनी ये ख़ुशी मैं सबके साथ बाँटना चाहता था. दोस्तों को बताना चाहता था कि मैंने आज सायकिल चलाई. फिर सोचता था मुझे सायकिल चलते हुए किस किस ने देखा? जो मुझे शाबासी देंगे कि आज तुमने सायकिल चला ली. नीलआर्मस्ट्रांग ने जो ख़ुशी चाँद की धरती पर पैर रखने पर पाई होगी वही ख़ुशी मैं उस दिन सायकिल चला कर पाई थी.
मैंने सभी को ख़ुशी से बताया कि अब सायकिल चला लेता हूँ. लेकिन चलाते हुए सिर्फ मेरे छोटे भाई ने ही देखा था. दुसरे दिन फिर सभी को इकट्ठा कर मैंने सबके सामने 200 फुट सायकिल चलायी. अब मैंने जता दिया था कि मै अब सायकिल चलाना सीख गया हूँ .
आज सायकिल ही घरों से गायब हो गयी है. सायकिल जगह मोटर सायकिल ने ले ली एक एक घर में चार-चार मोटर सायकिलें है. लेकिन जो आनंद सायकिल चलाने का था वो किसी और में कहाँ?
सही बात , जाने कहाँ गए वो दिन
जवाब देंहटाएंआपने तो हमें भी अपने स्कूल के दिनों की याद दिला दी ललित जी! सायकल चलाने के लिये तरसा करते थे हम, बड़ी मुश्किल से सायकल मिलती थी कभी कभी।
जवाब देंहटाएंललित भाई,
जवाब देंहटाएंबचपन में स्कूल की किताब में एक कहानी पढ़ी थी- साइकिल की सवारी...आप के संस्मरण ने उसी कहानी की याद दिला दी...वाकई जब पहली बार बिना किसी सहारे के अपना संतुलन बनाकर साइकिल चलती है तो उस वक्त जो परम आनंद मिलता है, उसको शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता...
जय हिंद...
थोडा और इंतज़ार कर लेते ललित जी, उन दिनों साइकल शादी में दहेज़ में मिलती थी।,
जवाब देंहटाएंफिर किसकी हिम्मत होती जो मना कर सके चलाने से। हा हा हा ! बढ़िया संस्मरण ।
गाड़ी,मोटर चलाना उतना बड़ा काम नही है जितना की सायकिल चलना बार बार पैदल मारना साथ ही साथ बेलेन्स और हॅंडल का नियंत्रण मैनेज करना कोई आसान काम नही ..बहुत खुशी होती है बढ़िया संस्मरण ललित जी..
जवाब देंहटाएंसच में सायकल चलाना अपने आप में एक कला है दो पतले पहियों पर चलती साइकल जिसमे आपको हँडल भी संभालना है और पैडल भी मारने हैं और ब्रेक भी मौके पे लगाने हैं! सब कुछ manual करना है! वैसे आपने जो ब्योरा दिया है अपने सिखने का बहुत बढ़िया लगा!!!
जवाब देंहटाएंनहीं जी सायकल घरो से गायब नहीं हुयी है, अभी भी है ! मेरा घर मेरे कार्यालय से २ किमी है और हम सायकल से कार्यालय जाते है ! हम काम करते है , बंगलोर के इलेक्ट्रोनिक सीटी में एक आई टी कंपनी में ! और हां ये काम करने वाला मै अकेला नहीं हूं , और भी दीवाने है हमारे अलावा !
जवाब देंहटाएंठीक है जी , सायकिल की सवारी का महत्व बना हुआ है ...
जवाब देंहटाएंभई ललित जी, आपने तो हमारी यादों को बचपन की ओर ऎसा धकेला कि हम इस समय टिप्पणी करते हुए भी साईकिल ही चला रहे हैं :)
जवाब देंहटाएंसंस्मरण बहुत रोचक और प्रेरणादायी रहा!
जवाब देंहटाएंबचपन में लौट्ना हमेशा अच्छा लगता है ललित भाई, अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंcycle se aath kilometre daura mai bhi kiya karta tha kaksha chauthi me apne ateet ke bare me likhna hi chahiye bahut sundar yadi abhi bhi jari rahta to mere dimag (ghutne ki )ki takleef badhti nahi. are cycle chalana to ek vyayam hai
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