जीवन चलाने एवं पेट भरने के लिए साधन का जुगाड़ करने के लिए सारी दुनिया भाग रही है और भागना भी जरुरी है, नहीं भागेंगे तो पेट कैसे भरेंगे? इसी भाग दौड़ में काम का दबाव युवाओं को मानसिक रोगी बना रहा है।
नौकरी के लिए मनुष्य को सभी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है. दो जून की रोटी के लिए मानसिक दबावों में काम करना पड़ता है.सारी दुनिया ऐसे ही चल रही है.
मौज में तो सिर्फ चापलूस और चमचे, वे अपनी इस मक्खन लगाने की विद्या का इस्तेमाल करके सदैव मलाई खाने में लगे रहते हैं.
आज नौकरी मिलने से ज्यादा कठिन, उसे बचाना हो रहा है. आज कल बड़ी निर्दयता से काम लिया जा रहा है. बहुउद्देशीय कम्पनियां भी बड़ी-बड़ी तनखा का लालच देकर दिन रात शोषण कराने का ही काम कर रही है.
एक दो लाख का पॅकेज देने के बाद तो नौकरी चौबीस घंटे की हो गयी है. मैं यह सब इस लिए कह रहा हूँ कि एक नई बीमारी पैदा हो गयी है जिसे "वर्क सिकनेस" का नाम दिया गया है.
इस नाम से मेरा वास्ता अभी कुछ दिनों पूर्व केरल जाते समय ट्रेन में पड़ा. मैं और सुमित रायपुर से ट्रेन में केरल जाने के लिए निकले, जब ट्रेन में अपनी सीट संभाली तो एक दुबला पतला सा लड़का भी था, हमारी सीट के साथ ही उसकी सीट भी थी.
जब ट्रेन एक दो स्टेशन आगे निकल गयी तो वह लड़का अपनी सीट को छोड़कर इधर-उधर घुमने लगा, कभी शून्य में ताकता, कभी अपने आप से ही बातें करता, असामान्य सी हरकतें कर रहा था.
रात के 12 बाज रहे थे सारी सवारियां इसकी हरकत को देख रही थी. सब आशंकित थे कि ये पागल है और पता नहीं सोने के बाद रात को ये क्या करेगा?
मैं उससे बात नहीं करना चाहता था. पता नहीं फालतू गले ही पड़ जाये तो मुस्किल हो जाएगी, पागल का क्या भरोसा? लेकिन सुमित ने उसे पास बुलाया और उससे बातचीत शुरू की.
बातचीत में उसने बताया कि वह इलेक्ट्रिकल इंजिनियर है और हमारे छत्तीसगढ़ के एक इलेक्ट्रिकल उत्पादन यूनिट में काम करता है, उसका घर केरल में कोल्लम के पास है, वह छुट्टी में वहीं जा रहा है.
हमारे यहाँ से रेल मार्ग से केरल ५२ घंटे का सफ़र है. अब जिसे हमें उसके साथ तय करना था. सुमित ने उसके साथ दोस्ती कायम कर ली, तो उसने बताया कि उसे तो २४ घंटे काम करना पड़ता है.
सुमित बोला "भैया! इसको "वर्क सिकनेस" हो गया है, और कम्पनी वालों देखा कि अब इसका दिमाग खसक गया है इसलिए इसे छुट्टी पर घर भेज दिया है और बाद में इसे निकल देंगे.
मुझे उस लड़के से बड़ी सहानुभूति थी. उसे गन्ने की तरह निचोड़ लिया गया था. जब काम का नहीं रहा तो उसे घर भेज दिया गया.
नौकरी के लिए मनुष्य को सभी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है. दो जून की रोटी के लिए मानसिक दबावों में काम करना पड़ता है.सारी दुनिया ऐसे ही चल रही है.
मौज में तो सिर्फ चापलूस और चमचे, वे अपनी इस मक्खन लगाने की विद्या का इस्तेमाल करके सदैव मलाई खाने में लगे रहते हैं.
आज नौकरी मिलने से ज्यादा कठिन, उसे बचाना हो रहा है. आज कल बड़ी निर्दयता से काम लिया जा रहा है. बहुउद्देशीय कम्पनियां भी बड़ी-बड़ी तनखा का लालच देकर दिन रात शोषण कराने का ही काम कर रही है.
एक दो लाख का पॅकेज देने के बाद तो नौकरी चौबीस घंटे की हो गयी है. मैं यह सब इस लिए कह रहा हूँ कि एक नई बीमारी पैदा हो गयी है जिसे "वर्क सिकनेस" का नाम दिया गया है.
इस नाम से मेरा वास्ता अभी कुछ दिनों पूर्व केरल जाते समय ट्रेन में पड़ा. मैं और सुमित रायपुर से ट्रेन में केरल जाने के लिए निकले, जब ट्रेन में अपनी सीट संभाली तो एक दुबला पतला सा लड़का भी था, हमारी सीट के साथ ही उसकी सीट भी थी.
जब ट्रेन एक दो स्टेशन आगे निकल गयी तो वह लड़का अपनी सीट को छोड़कर इधर-उधर घुमने लगा, कभी शून्य में ताकता, कभी अपने आप से ही बातें करता, असामान्य सी हरकतें कर रहा था.
रात के 12 बाज रहे थे सारी सवारियां इसकी हरकत को देख रही थी. सब आशंकित थे कि ये पागल है और पता नहीं सोने के बाद रात को ये क्या करेगा?
मैं उससे बात नहीं करना चाहता था. पता नहीं फालतू गले ही पड़ जाये तो मुस्किल हो जाएगी, पागल का क्या भरोसा? लेकिन सुमित ने उसे पास बुलाया और उससे बातचीत शुरू की.
बातचीत में उसने बताया कि वह इलेक्ट्रिकल इंजिनियर है और हमारे छत्तीसगढ़ के एक इलेक्ट्रिकल उत्पादन यूनिट में काम करता है, उसका घर केरल में कोल्लम के पास है, वह छुट्टी में वहीं जा रहा है.
हमारे यहाँ से रेल मार्ग से केरल ५२ घंटे का सफ़र है. अब जिसे हमें उसके साथ तय करना था. सुमित ने उसके साथ दोस्ती कायम कर ली, तो उसने बताया कि उसे तो २४ घंटे काम करना पड़ता है.
सुमित बोला "भैया! इसको "वर्क सिकनेस" हो गया है, और कम्पनी वालों देखा कि अब इसका दिमाग खसक गया है इसलिए इसे छुट्टी पर घर भेज दिया है और बाद में इसे निकल देंगे.
मुझे उस लड़के से बड़ी सहानुभूति थी. उसे गन्ने की तरह निचोड़ लिया गया था. जब काम का नहीं रहा तो उसे घर भेज दिया गया.
अभी कल की ही बात है शाम को हमरे एक मित्र देवलाल साहू जी आये. उन्होंने मुझे एक दुर्घटना के सम्बन्ध में जानकारी दी, जिस सुनकर मै अभी तक विचलित हूँ.
मेरी एक सहपाठी शिक्षिका का कार्य करती है उसका स्कूल मेरे घर के सामने ही है. आते-जाते मिलती ही रहती है. किसी कारण से उसका तलाक हो गया और वो अपनी बूढी माँ की सेवा करते हुए उसके साथ ही रहती है
उसके घर में कोई नहीं है. ये दो माँ बेटियां ही है. अभी कुछ दिन पहले घर आई थी, उसने बताया कि संस्था ने उसका स्थानानतरण कर दिया है. हमारे गांव से ७० किलोमीटर दूर. उसे अब बालवाडी में पढाना है.
अभी तक आठवीं कक्षा के विद्यार्थियों को गणित पढ़ाती थी, अब उस नर्सरी के बच्चों को पढ़ना है. संस्था का सचिव उसे बहुत परेशान कर रहा है. मैं चिंतित हूँ, अकेले माँ को छोड़ के कैसे जाऊँ, अब वो अपने काम खुद भी नहीं कर सकती,
सच में वह उस दिन बहुत चिंतित थी. उसकी संस्था गैर सरकारी थी जिससे मैं भी उसकी कोई सहायता नहीं कर सकता था.
साहू जी ने कल बताया कि उसको पक्षाघात हो गया. शरीर में एक तरफ लकवा मार गया और वो अस्पताल में भरती है. बड़ी करुण स्थिति है.
एक तरफ वृद्धा माँ और दूसरी तरफ वह स्वयं पक्षाघात की शिकार. यही सोच कर मैं स्वयं चिंतित हूँ इनका अब क्या होगा?
विचित्र है यह संसार!
जवाब देंहटाएंजिधर देखो सिर्फ स्वार्थ ही दिखाई पड़ता है।
एकदम सही बात है ! एक और जहां सरकारी बाबू दिनभर तास खेलने में व्यस्त रहते है वही निजी क्षेत्र खून चूसकर पैसे देता है और ये सरकारी बाबु फिर अपनी तनख्वाह की तुलना उसकी तनख्वाह से करने लगते है !
जवाब देंहटाएंवास्तव में बात तो चिंता की ही है।
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अदभुत है हमारा शरीर।
अंधविश्वास से जूझे बिना नारीवाद कैसे सफल होगा?
दुनिया मे दुख और चिन्ता के सिवा क्या है? मगर कुछ दुख वाकई असहनीय होते हैं जब उनका हल नज़र नहीं आता शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंआंख बंद कर तुगलकी फर्मान जारी करने वाले कब सोचेंगे दूसरों के बारे में। जब खुद पर पड़ती है तो तलवे चाटने से भी बाज नहीं आते ऐसे खुदगर्जी।
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