शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

जब की रेलगाड़ी की सवारी-कविवर की दूर हुई बीमारी

हमारा भ्रमण होता रहता है तो किसम-किसम लोग मिलते ही रहते हैं. कभी बस में, कभी रेल गाड़ी, में कभी उड़न खटोले पर, जैसे जो सुविधा मिल जाये, हम पहुँच जाते हैं तय समय पर निर्धारित कार्यक्रम में. 

ऐसे सफ़र में साहित्कार, कवि लेखक भी मिल जाते हैं. जो साहित्य सेवा में लगे हैं. और उनका कार्य अनुकरणीय भी होता है. एक बार के सफ़र की कथा हम सुनाते हैं. जो हमने देखा उसका सीधा प्रसारण कर रहे हैं.

एक बार हम बिलासपुर से आ रहे थे रेल में. बड़ी भीड़ थी और हमारे पत्नी बच्चे भी थे साथ में. ट्रेन आते ही हमने पहले तो चढ़ने की व्यवस्था की, सामान रखा, उसके बाद बाल बच्चों को बैठने के लिए जगह की तलाश करने लगे, कुछ देर बाद जैसे-तैसे सबको एडजेस्ट किया, 

तभी चार छ: सीट के बाद हमें कुछ हल्ला सुना, लोग वाह-वाह कर रहे थे और ताली भी बजा रहे थे, मैंने सोचा कि क्या हो रहा है? 

ये देखने के लिए वहां पर चला गया, जाकर देखा कि एक खादीधारी श्रीमान हाथ में एक मोटी सी डायरी लेकर उसमे लिखी कविता पढ़ रहे थे. हमने भी उनकी कविता सुनी और वाह-वाह कहा. तो वहां बैठे लोगों हमारे को खड़े देखकर थोड़ी सी जगह हमारे बैठने के लिए भी बनाई. और बैठने का निमंत्रण दिया. हम बैठ गए. 

कवि महोदय अपनी कविता धारा प्रवाह सुना रहे थे और लोग वाह-वाह करके ताली बजा रहे थे. उसमे हम भी शामिल हो गए और आनंद लेने लगे. अगला स्टेशन आया तो दो सवारी उतर गई उनकी जगह नई सवारी आ गई.
कवि महोदय का कविता पाठ शुरू ही रहा, नयी सवारी भी वाह-वाह करने लग गई.  मैंने कवि महोदय से पूछा " क्या बाबा ट्रेन में भी कविता पाठ चल रहा है? 
तो वो बोले " क्या करोगे भाई बड़ा ख़राब जमाना आ गया है. अब वो जमाना नहीं रहा जो हमको कोई कवि सम्मलेन में आमंत्रित करके हमारी तरह-तरह की कविता सुनेगा! जब किसी कवि सम्मलेन में चले भी जाते हैं तो लड़के लोग हुटिंग करते हैं, चिल्लाने लगते हैं "डोकरा को बैठाओ-डोकरा को बैठाओ" बड़ी समस्या हो गई है. 

अब हम तो पैदायशी कवि हैं. कविता लिखते हैं तो घर से बाहर निकल कर देखना पड़ता है कि कोई अपना आदमी आये तो उसको सुनाये, कोई सुनने को ही तैयार नहीं होता. जब तक  लिखी हुई कविता को हम किसी को सुना नहीं लें तो पेट में गुडगुडी होती रहते है, अफारा आ जाता है, खाने की इच्छा चली जाती है. बहुत परेशान जो जाती है. कई डाक्टरों को दिखाया बोल कोई बीमारी नहीं है. 


एक दिन हम ट्रेन में रायगढ़ जा रहे थे. साथ में कविता की डायरी भी थी, जैसे ही हमने डायरी बाहर निकाली वैसे ही अगल बगल की सवारी बोली" कविता है क्या बाबा? जरा सुनाओ ना. 

हमने उनको कविता सुनाई, उस दिन हमारी तबियत ठीक रही. अब  हमको इलाज मिल गया था. उस दिन से हम सप्ताह भर कविता लिखते हैं और एक दिन पंद्रह रूपये का लोकल ट्रेन का टिकिट ले कर ट्रेन में सवार हो जाते हैं. 

सप्ताह भर की लिखी हुयी कविता यहीं ट्रेन में सवारियों को सुना देते हैं, तो मुझे यहाँ श्रोता भी मिल जाते हैं और मेरी तबियत भी ठीक रहती है.अगर किसी को कविता पसंद नहीं आती वो अपनी सीट बदल लेता है.या अगले स्टेशन पर उतर जाता है. 

तो भाई मुझे तो यही मंच अच्छा लगता है. मैं सुनकर खुश हो गया कि चलो बिना दवाई के कवि महोदय की तबियत ठीक हो गई और इन्होने कविता पाठ के लिए इतना बड़ा मंच भी तलाश कर लिया. 

मैंने कहा "बाबा आपने तो बहुत बढ़िया काम किया है. आप धन्य हैं इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी साहित्य की सेवा कर रहे है. आपको बारम्बार प्रणाम है. 

इसके बाद हमने उनकी एक कविता सुनी तब तक रायपुर आ चूका था और हमारी यात्रा यहीं तक थी.

13 टिप्‍पणियां:

  1. हा हा हा ! ललित जी , कविता तो हम भी लिखते हैं।
    लेकिन यदि ट्रेन में सुनाई तो रेलवे वाले हमें पकड़कर जेल में डाल देंगे।
    क्योंकि हमारी कविता सुनकर ट्रेन ही खाली हो जाएगी, और लोग अपना रिफंड मांगने लगेंगे। :)

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  2. वैसे काव्य पाठ सुनाने के लिए श्रोता ढूँढने का ट्रेन का डिब्बा सबसे उम्दा स्थान लगता है !

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  3. बहुत सुन्दर, बिलासपुर से रायपुर का सफ़र कैसे कट गया पता ही नहीं चला.... लगता है हम भी अब सफ़र करते समय उसी डिब्बे मे बैठेंगे जिसमे "कवि बाबा" सवार होंगे!!!

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  4. रशिया में जब क्रांति हुई थी तब वातावरण बनाने के लिये वहाँ के कवि रेल में , कारखानों के गेट पर , बाज़ारों में हर जगह कविता सुनाया करते थे । और क्या कहूँ आप खुद समझ दार हैं ।

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  5. आपने दिनचर्या को शब्दों में रोचक ढंग से बाँधा है!

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  6. चलिये, शोधित रीठेल भी आपकी उपस्थिति का आनन्द दे गया. जय हो ललित महाराज की.

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  7. बहुत मज़ेदार रही दोबारा ठेली पोस्ट भी.. ये साइड वाला चित्र भी कमाल का है..

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  8. डोकरा को ब्लाग खोलकर देना बनता है...कब तक यूं बुढ़ापे में खर्चा करते घूमेंगे.

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  9. ट्रेन में समय का सदुपयोग ऐसे भी किया जाता है .. आपकी इस पोस्‍ट के बाद शायद यात्रा में लोग बोर न हों !!

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  10. हा हा हा हा
    महू ह रेल गारी के जनरल डब्बा लिखे रेहेन्व
    त अईस्ने होये रहिसे
    आजू बाजू के सवारी मन ल बोर करत रेहेन्व
    काबर के ओ दिन
    नवा बैला के नवा सीन्ग चल रे बैला टीन्गे टीन्ग
    रहिसे

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  11. डोकरा को ब्लाग खोलकर देना बनता है

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