सोमवार, 27 जून 2011

फ़िल्मी चक्कर --- ललित शर्मा

जय संतोषी माँ फ़िल्म का पोस्टर
फ़िल्मों का भी एक जमाना था, जब घर भर के लोग बैलगाड़ी में चढ कर फ़िल्म देखने गांव से शहर जाते थे। मेला-ठेला में एवं कस्बे में टुरिंग टाकिज आते थे, जो कनात से मैदान घेर कर फ़िल्म दिखाने की व्यवस्था करते थे। एक प्रोजेक्टर रात के दो शो दिखाया करता था। मैने पहली फ़िल्म टाकिज में संत ज्ञानेश्वर देखी थी। इस तरह की धार्मिक फ़िल्में गांव देहात में चला करती थी। मुझे याद है रायपुर के शारदा टाकिज में हम लोग सपरिवार जय संतोषी माँ फ़िल्म देखने गए थे। वहाँ लोग परदे पर ही सिक्के फ़ेंकने लग जाते थे। इनके लिए अलग से दान पेटी की व्यवस्था की गयी थी। फ़िल्म शुरु होने से पहले आरती की जाती थी। तब फ़िल्म शुरु होती थी। जब "मत रो मत रो आज राधिके सुन ले बात हमारी" गीत बजने लगता तो महिलाएं रोने लगती कि छोटी बहु कितनी तकलीफ़ सह रही है और जेठानियाँ उसके साथ कपट व्यवहार कर रही हैं। कुछ ऐसी दास्तान तब के सिनेमा की थी। फ़िल्में सिल्वर जुबली और गोल्डन जुबली मनाया करती थी।

टाकिज में पोस्टर देखते दर्शक
स्कूल-कालेज में पढने वाले विद्यार्थी फ़िल्म का पहला शो देखने के लिए रात से ही टाकिज की टिकिट खिड़की में लाईन लगा लेते थे। टिकिट ब्लेक हुआ करती थी। फ़िल्मों के प्रति लोगों को दीवानगी के किस्से सुने जाते थे। जब भी कोई फ़िल्म नई फ़िल्म आती थी तो उसकी कहानी की किताब गानों के साथ मिला करती थी। हम गाँव से फ़िल्म देखने नहीं जा पाते थे तो उन किताबों को पढ कर फ़िल्म की कहानी का पता लगा लिए करते थे। जब कोई दोस्त फ़िल्म देख कर आता और उसके किस्से सुनाता तो हम भी उसकी कहानी सुना कर रौब गांठ लिया करते थे। आडियो कैसेट पर भी फ़िल्मों की पूरी कहानी दो-तीन कैसेटों में मिल जाती थी, उसे टेपरिकार्डर पर चला कर सुना जाता था, जैसे टाकिज में बैठ कर फ़िल्म देख रहे हों, वो भी एक जमाना था।

डबल धमाल का एक सीन
कालांतर में वीडियो कैसेट वी सी आर का जमाना आ गया। 100-200 रुपए में वी सी आर किराए पर लाकर रात भर फ़िल्में देखी जाती थी। गाँव में परिवारिक उत्सव के समय नाच गाना बन्द हो गया और छट्ठी त्यौहार आदि में वीडियो का चलन हो गया। 21 इंच के रंगीन टीवी पर गांव भर के लोग रात भर बैठ कर फ़िल्म देखने का आनंद लेते थे। तालाब की पार में बैठ कर गुड़ाखु घिसते हुए नौजवान फ़िल्मों का रस लेते घंटो बतियाते रहते थे। टाकिज तक जाना कम हो गया था। वीडियो ने टाकिज के दर्शकों का अपहरण कर लिया, रही सही कसर टीवी ने पुरी कर दी। दुरदर्शन भी सप्ताह में दो फ़िल्मे मुफ़्त दिखाने लगा था। टाकिज के दर्शक कम होते गए। शहर की कई टाकिजें बंद हो गयी और उसकी जगह बड़े-बड़े व्यावसायिक काम्पलेक्स खुल गए। 

शिव टाकिज बिलासपुर छत्तीसगढ
वी सी आर की जगह अब सीडी ने ले ली, 1000 रुपए का सीडी प्लेयर और 10 रुपए की कैसेट ने टाकिजों के बारह बजा दिए। घर-घर में कम्पयुटर हो गए, नेट से फ़िल्म डाउन लोड करने की सुविधा मिल गयी। सेटेलाईट टीवी चैनलों ने दिन में 50 से 100 फ़िल्में दिखाने शुरु कर दी, इस तरह टाकिज के ताबूत में आखिरी कील ठोंकने का काम चैनल वालों ने कर दिया। मुझे बरसों हो गए टाकिज में फ़िल्म देखे, अंतिम फ़िल्म पिछले जुलाई में नागपुर में "रावण" देखी थी। शुक्रवार को मैने मॉल के आईनोक्स में फ़िल्म देखी, भेजा फ़्राई। इस फ़िल्म ने भेजा फ़्राई ही कर दिया। आईनोक्स में लगभग 200 से अधिक ही सीटे होगीं। टिकिट दो आदमियों की 260 रुपए और 180 रुपए स्नेक्स के कम्बो पैक के दिए। कुल मिलाकर 440 रुपए में दो लोग फ़िल्म देखने लगे। जब अंदर गए तो गेट कीपर ने हमारे सीट नम्बर पर बिठाया, वहां एक जोड़ा पहले से बैठा था। पूरा टाकिज खाली था। फ़िल्म शुरु होने पर एक जोड़ा और आ गया। टाकिज में 6 लोगों ने बैठ कर एक शो देखा।

शिव टाकिज में दर्शकों की भी
इधर खबर मिली की धमाल टु याने डबल धमाल भी रिलीज हुई है। इस फ़िल्म में संजय दत्त, मल्लिका शेरावत, कंगना, सईद जाफ़री, अरशद वारसी आदि कलाकार है। मैने जाना कि फ़िल्म की कहानी चलने के लायक है। परसों शाम को 6 बजे का शो बिलासपुर के शिव टाकिज में देखने के लिए बड़ी संख्या में दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ी, जैसे कोई मनमोहन सिंह ने गैस सिलेंडर का रेट 100-200 कम दिया हो। बताते हैं कि टिकिट खिड़की में 50 मीटर लम्बी लाईन लगी थी। इस भीड़ को देखने के बाद लगता है कि टाकिजों के दिन बहुर रहे हैं। लगता है वर्तमान में युवाओं का रुझान टाकिजों की तरफ़ बढ रहा है। टाकिजों का व्यवसाय मंदी के दौर से बाहर निकल रहा है। वैसे भी अधिकांश टाकिजों में प्रोजेक्टर और फ़िल्म रोल का काम खत्म हो गया है। शो के समय सीधे सेटेलाईट से ही फ़िल्म दिखाई जाती है। अगर यही हालात रहे तो टाकिजों का स्वर्णिम युग लौट सकता है।

चित्र - बिलासपुरिहा मित्र के सौजन्य से
NH-30 सड़क गंगा की सैर

17 टिप्‍पणियां:

  1. लोगों को डब की हुयी पाइरेटेड फिल्मों में आनन्द नहीं आता है। यदि टिकट थोड़ा कम रहे तो टॉकीज़ में ही देखने का आनन्द है।

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  2. भाई
    अपने को तो फ़िल्मी शौक ज्यादा नहीं है।
    इतने मंहगे टिकट।

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  3. बढ़िया फ़िल्मी जानकारी |

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  4. प्रोजेक्टर से हमने भी देखी है बहुत फ़िल्में ...गणेशोत्सव पर कोलोनी में दिखाई जाती थी ...
    इतने महंगे टिकिट ...आजकल कुछ दिनों बाद ही नयी मूवी टीवी चैनल पर आ जाती है!

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  5. मुझे तो अब भी याद है कि जब हमारे शहर मे जय संतोषी माँ फिल्म लगी थी तो कुछ औरतें अपने जूते भी बाहर खोल कर जाती थी। अच्छी जानकारी। धन्यवाद।

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  6. आज कल फिल्म टाकीज में देखना कितना मंहगा हो गया है ...मुझे तो पैसे की और समय की बर्बादी ही लगता है ... वैसे अपने समय में ( कॉलेज में ) बहुत फिल्म देखी हैं ..तब टिकट ३.५० रूपये का आता था बालकनी का ... उस समय का मंहगा शौक था यह ..

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  7. jay santoshi maa mere ghar ke peeche ki manohar talkies me lagi thi jiska naam us samay sharda mandir rakh diya gaya tha.theatre me filme delkhne ka anand hi kuchh aur hai.aur bilaspur wahan to talkies me hullad hote hi gatekeepar aakar chillate the raipur walo shant ho jao.yahan ke logo ki dailoguebazi bhi kafi famous thi.

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  8. भरोसा नहीं होता कि अब भी टाकीजों में इतनी भीड़ उमड़ती है. हमने अपने जमाने में चोपड़ी का भी मजा लिया है, जिसमें फिल्‍म के गाने, छः-आठ लाइन में कहानी और उसके बाद स्‍थायी वाक्‍य होता था- आगे रुपहले परदे पर.

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  9. फ़िल्मी यादों में डुबो दिया । हमने पहली फिल्म कालोनी में टेंट फाड़ कर घुस कर देखी थी --नई उम्र की नई फसल ।

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  10. हमारे यहाँ फिल्मे अपना असर रखती ही हैं.....

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  11. जय संतोषी माता फिल्म मे गुड़ और चने का प्रसाद भी बँटता था.

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  12. आज का वक़्त और सब कुछ बदला सा है अब ......नयी फिल्मे ..नए सिनेमा घर ...अब टाकिज का ज़माना कहाँ रहा ...सब कुछ बदल गया ....आपके लेख ने पुरानी यादे ताज़ा कर दी ....आभार

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  13. फिल्मों और दर्शकों की रोचक दास्तान । आपकी निगाह बडी पारखी है ।
    जय संतोषी मां फिल्म के पोस्टर का फोटो भी है आपके पास । फोटो का खूब कलेक्शन है।

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