गुरुवार, 28 जुलाई 2016

मोक्ष-दायिनी सप्तपुरियों में से एक उज्जयिनी

आज 7 मई का दिन था, सुबह उठकर पुन: रामघाट की तरफ़ चल दिए। आज भीड़ कुछ अधिक दिखाई दे रही थी। सांझ के समय कुछ बारिश भी हुई थी, सो गरमी कम ही थी। स्नान ध्यान के पश्चात कुंभ का चक्कर काटते हुए लौट आए। उज्जैन नगरी को घूमकर देखने का काफ़ी दिनों से कार्यक्रम बन रहा था, परन्तु संयोग कुंभ में ही मिला। हमारे छत्तीसगढ़ से विवेक तिवारी भी कुंभ में नित्यानंद के पंथ दीक्षित बने हुए थे। वे भी मिलने के लिए आए और सांझ के समय हम सबने कुंभ स्थल का भ्रमण किया। अवन्ति की राजधानी उज्जैन होने का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। एक दृष्टि उज्जैन के इतिहास पर डाली जाए।
अनुज साहू, ललित शर्मा एवं विवेक तिवारी उज्जैन कुंभ
धार्मिक दृष्टि से मोक्ष-दायिनी सप्तपुरियों में उज्जयिनी गिनी जाती है। पुराणों एवं महाभारत के अनुसार इस नगर का अस्तित्व महाभारत युद्धों से भी पूर्व था। पुरातात्विक उत्खनन् इस नगर को लगभग 3000 वर्ष प्राचीन सिद्ध करते हैं। प्राचीन भारतीय साहित्य का सृजन सांस्कृतिक वातावरण में हुआ। भारतीय संस्कृति की प्रशंसा न केवल भारत में अपितु विदेशों में भी मुक्तकण्ठ से की गई है। इस विगत भव्य संस्कृति की झलक प्राचीन साहित्य के प्रत्येक पृष्ठ पर मिलती है। प्राचीन भारतीय संस्कृति के केन्द्रभूत नगरों में उज्जयिनी नगरी का अपना विशिष्ट स्थान है। उज्जयिनी की प्राचीनता महाभारत आदि के वर्णन से, ईसा पूर्व 4000 वर्षों तक मानी जा सकती है। इतनी प्राचीन नगरी अपने परिवर्तित नामों के परिवेश में अनेक ऐतिहासिक उत्थान-पतन के बाद भी अचल रही है। 
उज्जैन नगरी का प्राचीन द्वार
उज्जयिनी का इतिहास अनेक राजवंशी के उत्थान-पतन का इतिहास है। इतिहास पूर्व युग में यह नगरी नाग सभ्यता का केन्द्र थी। इसके बाद यह वैदिक यदुवंश की हैहय शाखा के शक्तिशाली राजाओं की राजधानी बन गयी। महाभारत युद्ध में कौरवों को यहाँ के शासक विन्द-अनुविन्द ने सहायता दी थी।  प्रद्योतवंशीय राजाओं ने स्वतंत्र रूप से उज्जयिनी पर शासन किया, परंतु नन्द वंश के उदय ने उज्जयिनी को मगध साम्राज्य का अंग बना दिया। प्रद्योत देवी का उपासक था। बुद्ध धर्म के आराधकों में यहाँ के भिक्षु महाकात्यायन, सौण, अभय, भद्रकपिलानी, ऋषिदासी, देवी (अशोक की पत्नी), गोपाल माता, गणिका प्रज्ञावती आदि का नाम उल्लेखनीय है। विदेशों में भारतीय संस्कृति के प्रचारक में बुद्धकालीन काश्यप मातंग का नाम स्मरणीय है। ये उज्जयिनी के थे और इन्हें चीन के सम्राट ने निमंत्रित किया था।
उज्जैन नगरी की सैर
नंदों के विशाल साम्राज्य को नष्ट कर चन्द्रगुप्त मौर्य ने भारतीय इतिहास में नये युग का निर्माण किया। संसार का प्रथम साम्राज्यवादी नीतिज्ञ चाणक्य चन्द्रगुप्त का आचार्य सहायक तथा मन्त्री था। चन्द्रगुप्त ने चाणक्य की सहायता से मगध राज्य पर अधिकार किया। चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य ने मगध पर अधिकार करने के लिए कूटनीति और युद्धनीति दोनों का सहारा लिया। चन्द्रगुप्त ने भारत के अनेक राष्ट्रों को अपने वश में कर एक साम्राज्य की स्थापना की। चन्द्रगुप्त ने उत्तरी और दक्षिणी भारत को एक शासन सूत्र में बांध-कर राजनैतिक एकता स्थापित की।
उज्जैन नगरी का राम घाट
चन्द्रगुप्त ने अवन्ति का शासन अपने पपौत्र अशोक को सौंपा। अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा ने सिंहल देश जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार किया। पाली त्रिपिटक को वे अपने साथ ले गये। महेन्द्र का लालन-पालन उज्जयिनी में हुआ था। उनकी भाषा अवन्ति की भाषा थी और उसी भाषा में उन्होंने वहाँ सत्य और अहिंसा का संदेश दिया। स्वयं विश्व के सम्राट अशोक भी अपने यौवन के अति प्रारम्भिक काल से उज्जयिनी के राज्यपाल रहे। उन्होंने कुशल प्रशासन की शिक्षा इसी भूमि से ली। आज विश्व में प्रख्यात् सम्राट के रूप में उनका नाम लिया जाता है। बौद्ध धर्म के प्रचार और प्रसार में अशोक ने महत्वपूर्ण कार्य किए। अशोक स्तम्भ पर चक्र और सिंह मुद्रित है। भारतीय परम्परा में चक्र अध्यात्म भावना, जीवन की प्रगति तथा समदर्शिता का सूचक है। यह चक्रांकित मुद्रा उज्जयिनी की मानी जाती है।
उज्जैन नगरी के घाटों पर श्रद्धालुओं की भीड़
अशोक द्वारा प्रचारित बौद्ध धर्म और सम्प्रति द्वारा प्रचारित जैन धर्म की प्रक्रिया के कारण यहाँ शुंग शासन में ब्राह्मण धर्म को पुनः प्रतिस्थापना मिली। वैदिक यज्ञ- यागां तथा देवताओं की पूजा-अर्चना के लिए शुंग शासकों ने प्रजा को प्रोत्साहित किया। शुंग काल में उज्जयिनी मगध साम्राज्य के द्वितीय श्रेणी के नगरों में परिगणित थी। शुंगकालीन उज्जयिनी का इतिहास स्पष्ट नहीं है। पुष्यमित्र ने अपना राज्य आठ पुत्रों में बाँट दिया था ऐसा वायुपुराण से स्पष्ट होता है। विदिशा पर उसका पुत्र अग्निमित्र राज्य करता था। सम्भवतः सम्पूर्ण मालवा प्रदेश भी उसके अधिकार में रहा होगा। ऐसा ज्ञात होता है। शुंग वंश का राज्यकाल 186-85 ई.पू. से 75 ई. पूर्व तक रहा। 
उज्जैन नगरी की सैर
शुंगो के पश्चात कण्व शासक आया और इसी समय दक्षिण की आन्ध्र-सप्तवाहन शक्ति उत्तर की और प्रभावकारी होने लगी। और शीघ्र ही मालवा-मानव जाति के गर्दभिल्ल के नेतृत्व में आ गया। इसी समय मालवा पर शकों का आक्रमण हुआ। शकों की कार्दमक शाखा के चष्टन ने मालवा पर अधिकार कर लिया। चष्टन ने एक राजधानी स्थापित की और साथ ही क्षत्रप वंश स्थापित किया, जो बिना किसी व्यवधान के ईसवी सन् चौथे दशक के आरम्भ तक चलता रहा। मालवा प्रान्त में ऐसी कोई शक्ति नहीं थी जो कार्दमक की प्रभुसत्ता को चुनौती दे सके। शकों ने मालवा, गुजरात, काठियावाड़ तथा पश्चिमी राजपूताना के भागों से मिलकर बने अपने विशाल साम्राज्य पर उज्जैन से शासन किया। रूद्रसिंह तृतीय का उल्लेख अन्तिम शक शासक के रूप में आता है।
उज्जैन नगरी की सैर
विक्रमादित्य के काल में शैक्षणिक और साहित्यिक प्रगति चरम सीमा पर थी। इसका स्पष्ट प्रमाण उनके नवरत्न तथा अन्य साहित्यकार हैं। जिनके नाम हैं- धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटपरकर, कालिदास, वराहमिहिर, वररूचि, गुणाढ्य, हरिस्वामी, वात्स्यायन, व्याडि, भर्तृहरि आदि। यहाँ काव्यकारों की परीक्षा का केन्द्र था। उपर्युक्त विद्वानो के ग्रन्थों का अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि यहाँ वेद-वेदांग, धर्मशास्त्र, वैद्यकशास्त्र, दर्शन, काव्य स्मृतिशास्त्र, नाट्यशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, कामशास्त्र, रसायनशास्त्र, आदि का अध्ययन अध्यापन होता था।
उज्जैन नगरी की सैर
यहाँ जैन और बौद्ध धर्मों की उपस्थिति तो थी और उसके अनुयायी भी थे परन्तु जो राजसम्मान सम्प्रति के समय जैन धर्म को एवं अशोक के समय बौद्ध धर्म को प्राप्त था वह इस समय नहीं था। चन्द्रगुप्त आदि गुप्त शासक सब धर्मों के प्रति सहिष्णु थे। गुप्त काल में यहाँ कीक शिक्षा प्रणाली में प्रगति हुई। वराहमिहिर जैसे प्रख्यात ज्योतिषी इस युग के प्रमुख रत्न हैं। नृत्य, संगीत, वाद्य, चित्र करने के लिए विदेश गए। उनमें धर्मरक्ष, उपशून्य, गुणभद्र, गुणराय, परमार्थ, श्रमण आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इस नगरी की समृद्धि और भव्यता से आकर्षित होकर विदेशी यात्री ह्वेनसांग, फाह्यान, इत्सिंग आदि यहाँ आये। इस तरह उज्जैन का गौरवमय इतिहास रहा है, यह सर्वकाल में सांस्कृतिक वैभव की नगरी रही है।  जारी है, आगे पढ़े…

1 टिप्पणी: