विजय नगर साम्राज्य के राजा कृष्णदेव राय ने अपने जीवन काल में 14 युद्ध किए और उनमें विजय पाई। दक्षिण में उनका एक क्षत्र साम्राज्य स्थापित हो गया। यह समय हम्पी के लिए स्वर्णकाल माना जा सकता है। इस दौरान राज्य में निर्माण भी प्रचूर मात्रा में हुए। किसी भी साम्राज्य की सुरक्षा के लिए उसकी गुप्तचर प्रणाली सुदृढ होनी चाहिए। गुप्तचर ही राजा के आँख-कान होते हैं, उनके माध्यम से ही राज्य का हाल चाल एवं षड़यंत्रों की सूचना राजा तक पहुंचती है। इन सूचनाओं का परीक्षण कर राजा शत्रुओं एवं षड़यंत्रकारियों से सचेत हो सकता है। वैसे भी इतिहास से ज्ञात होता है कि युद्ध विजयों में गुप्तचरों का विशेष योगदान रहा है।
राजा कृष्ण देव राय |
गुप्त शब्द के साथ रोमांच जुड़ा हुआ है। हम्पी में भी कई गुप्त स्थान हैं, जहाँ राजा अपने गुप्तचरों एवं राज्य के विशेष अधिकारियों से गुप्त मंत्रणा करता था। शाही आवास क्षेत्र के मध्यम में एक भूमिगत गुप्त मंत्रणा कक्ष भी बना हुआ है। जिसकी छत वर्तमान में ढह गई है। इस कक्ष का निर्माण काले ग्रेनाईट से किया गया है। लगभग 15X15 लम्बाई चौड़ाई के इस कक्ष के चारों तरफ़ गलियारा है, तथा गलियारे में मशाल लगाने स्थान बने हुए हैं। वर्तमान में उन्मुक्त द्वार कभी गुप्त रहा होगा। कक्ष की छत धरती के समतल है जो वर्तमान में ढह गई है। राजा यहाँ सामरिक महत्व की चर्चा करने सेनापति और महामंत्री के साथ गुप्तचरों से भी भेंट करते रहे होंगे। कभी किसी विशेष कैदी को भी इस स्थान पर रखा जाता होगा।
गुप्त मंत्रणा कक्ष |
बाबू देवकी नंदन खत्री के उपन्यास चंद्रकांता संतति में गुप्तचरों (एयारों) एवं गुप्त कक्षों के माध्यम राज काज का खाका खींचा गया है। बताया क्या है कि गुप्तचर एक राज्य के लिए कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। भूमिगत रास्ते, गुप्त मंत्रणा कक्ष, तहखाने, गुप्त यातना गृह एवं कारावास इत्यादि राज्य की व्यवस्था के आवश्यक अंग थे। प्रत्येक किले या दूर्ग के निर्माण के समय सुरक्षा की दृष्टि से कई भूमिगत गुप्त रास्तों का निर्माण किया जाता था। जो वर्तमान में भी हमें किलों में दिखाई देते हैं। इसके साथ खजाने को भी गुप्त रखने की व्यवस्था की जाती थी। जिसकी जिम्मेदारी किसी एक विश्वसनीय के पर होती थी तथा बीजक के माध्यम से खजाने का मार्ग दर्शाया जाता था।
गुप्त मंत्रणा कक्ष का द्वार |
हम देखते हैं कि किलों एवं दुर्गों में स्थित कूपों में कई कक्ष एवं द्वार दिखाई देते हैं। कई तलों में इन कूपों का निर्माण किया जाता था तथा उन तक पहुंचने के लिए पैड़ियों का निर्माण किया जाता था। यह कूप भी एक तरह से गुप्त मंत्रणा के कार्य में लिए जाते थे। जब राज्य काज संबंधी कोई आवश्यक चर्चा करनी होती थी तब इन कूपों का उपयोग किया जाता था। इसलिए कूप खनन के दौरान भी उसमें गुप्त कक्ष बनाए जाते थे। चर्चा के दौरान आवाज गुंजित न हो इसलिए दीवारों को मोटा बनाया जाता था। कई स्थानों पर दीवारें कई हाथ मोटी दिखाई देती हैं। चुनारगढ़ के किले के कुंए में भी इस तरह के गुप्त द्वार दिखाई देते हैं। इस तरह राज्य की सूरक्षा के लिए गुप्त कक्ष एवं तहखानों का निर्माण होते थे।
विजयनगर राज्य का राजकीय आवास क्षेत्र |
राज्य को चलाने के लिए दंड विधान की आवश्यकता भी होती है। कभी मानव सभ्यता का एक काल ऐसा भी जब न राजा था, न राज्य था, न दंड था, न दंड था, न दंडी था और सभी लोग मानव धर्म के अनुसार एक दूसरे का सम्मान करते हुए रक्षा करते थे। (न राज्यं न च राजासीत न दण्डो न च दाण्डिकः। स्वयमेव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम ॥) दंड की उत्पत्ति राज्यसंस्था की उत्पत्ति के साथ हुई। महाभारत के शांतिपर्व: (56.13-33) में यह कहा गया है कि मानव जाति की प्रारंभिक स्थिति अत्यंत पवित्र स्वभाव, दोषरहित कर्म, सत्वप्रकृति और ऋतु की थी। तब दंड की आवश्यकता ही नहीं थी।
हाथी द्वारा मृत्यु दंड |
किंतु कालांतर में तामस्गुणों का प्राबल्य बढ़ने लगा, मनुष्य समाज अपनी आदिम सत्व प्रकृति से च्युत हो गया और मत्स्य न्याय छा गया। बलवान् कमजोरों को खाने लगे। ऐसी स्थिति में राज्य और राजा की उत्पत्ति हुई और सबको सही रास्तों पर रखने के लिये दंड का विधान हुआ। दंड राज्य शक्ति का प्रतीक हुआ जो सारी प्रजाओं का शासक, रक्षक तथा सभी के सोते हुए जागनेवाला था। अत: दंड को ही धर्म स्वीकार किया गया। राज्य धर्मानुसार दंड की व्यवस्था सभी पर समान रुप से लागु थी, इतिहास गवाह है कि राजाओं ने भी दंड को स्वीकार कर राज्य धर्म की रक्षा की। दंड का प्रयोग करनेवाला राजा भी यदि धर्म का उल्लंघन करे तो दंड का भागी होता था। धर्म अर्थात् विधि से परे कोई न था धर्म राजाओं का भी राजा था। राज्य का प्रधान राजा अथवा अन्य कोई शक्ति, यथा गणतंत्र का मुखिया न्यायिकय संगठन का प्रधान अवश्य था, किंतु विधि का प्रधान वह कभी नहीं हो सका और विधि के उल्लंघन करने पर दंड उस पर भी सवार हो जाता था।
दंड के लिए हाथी को उकसाते हुए |
दंड चार तरह के माने गए, 1- प्रतीकारात्मक - समाज की अत्यंत प्रारंभिक अवस्था प्रतीकारात्मक दंड की थी, जिसमें आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत (फोड़ देने और उखाड़ देने) का सिद्धांत चलता था। वैदिक साहित्य की "जीवगृभ" जैसी संज्ञाएँ इस बात की द्योतक हें कि भारतीय इतिहास के अत्यंत प्रारंभिक काल का न्याय कठोर और प्रतीकारात्मक ही था। इस सिद्धान्त की मान्यता है कि एक अपराधी को कठोर दण्ड देने से दूसरे लोग अपराध करने से डरते हैं।
2- निषेघात्मक - निषेधात्मक सिद्धान्त की मान्यता है कि अपराधी को दण्ड देने से जिसके प्रति अपराध हुआ है उसे उसका 'बदला' मिल जाता है। यह सभी सिद्धान्तों में सबसे बुरा सिद्धान्त है क्योंकि इसमें समाज का कल्याण या समाज की सुरक्षा की भावना नहीं है।
3-अवरोधक -तीसरी अवस्था में दंड का स्वरूप प्रतीकारात्मक के बदले अवरोधक हो गया। इसका कारण था दोषी मनुष्य के प्रति दोष किए गए हुए मनुष्य का निपट लेने के बजाय दंड धारण करनेवाले राज्य का बीच में आ जाना। व्यक्तिगत बदले की भावना को समाप्त कर राजकीय दंड की महिमा को स्थापित करना राज्य का उद्देश्य और उसकी बढ़ती हुई शक्ति का द्योतक हो गया। दीवानी के मामलों में अर्थदंड आदि द्वारा दोष किए गए हुए व्यक्ति को कुछ बदला दिलाना यद्यपि वैध माना गया, फौजदारी के मामलों में बदला लेना अब असंभव था। किंतु कठोर - कभी कभी तो अत्यंत क्रूर और असभ्य दंडों का दिया जाना प्राय: नियम सा था।
विजयनगर राज्य का सार्वजनिक दंड स्थल |
4- सुधारात्मक - चौथा और सर्वोत्तम दंड का प्रकार है सुधारात्मक। सभ्यता के विकास के क्रम में भी यद्यपि सभी देशों में संभावित दोषियों के प्रति दोषों के गंभीर परिणाम और दंडयातनाओं का भय उपस्थित करने के लिय कठोर अवरोधक दंड दिए जाते रहे हैं, पर कभी-कभी सुधारात्मक प्रवृत्तियाँ भी उठती रही हैं। प्राचीन रोम में दोषी की स्वतंत्रता का हरण (जेल में डाल देना) मात्र ही सबसे बड़ा दंड माना गया और उसके बाद कोई यातना आवश्यक नहीं समझी गई । भारतवर्ष में कौटिल्य ने काराग्रस्तों को प्रायश्चित्त कराने और अपने पापों का बोध कराने की व्यवस्था के द्वारा उन्हें विशुद्ध कराने का उल्लेख किया है।
विजयनगर राज्य के सार्वजनिक दंड स्थल पर ब्लॉगर |
आज दंड विधान की चर्चा करने का उद्देश्य था कि हम्पी यात्रा के दौरान प्राचीन विजयनगर राज्य में भी दंड की व्यवस्था के प्रमाण दिखाई देते हैं, जहाँ कारागार में निरुद्ध करने एवं सार्वजनिक रुप से दंड देने की प्रथा दिखाई देती है। राजमहल के लगे हुए दशहरा उत्सव स्थल के समीप सार्वजनिक रुप से दंड देने के लिए मुख्य मार्ग पर दो स्तंभ गड़े दिखाई देते हैं। इन स्तंभों के छिद्रों में लकड़ी डालकर अपराधी को हाथों से उसमें बांध दिया जाता था। यहाँ उसे प्रजा की उपस्थिति में सार्वजनिक रुप से दंड दिया जाता था। यह दंड सार्वजनिक रुप से कोड़े मारने से लेकर शीश विच्छेद तक का हो सकता था। किसी भी राज्य के संचालन के लिए साम, दाम, दंड एवं भेद की प्राचीन पद्धति लागु होती है। क्रूरतम अपराधी एवं राजद्रोही को कठोर दंड का विधान था। जारी है... आगे पढ़ें
दंड के बारे में आज विस्तार से पता लगा !
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