हम्पी यात्रा कई मायनों में सार्थक रही, कुछ ऐसी चीजें देखने मिली जो अन्य स्थानों पर दिखाई नहीं देती। विजयनगर साम्राज्य का वैभव एवं उसके भवनों की भव्यता आज भी दिखाई देती है और पर्यटक को विस्मित कर देती है। यहां के निर्माणों को देखकर उसे सोचना पड़ता है कि इसका निर्माण मनुष्यों द्वारा ही किया गया है या किसी अन्य ग्रह के प्राणियों द्वारा। वैसे भी वर्तमान में डिस्कवरी चैनल पर तो इस तरह के निर्माणों को सीधे-सीधे ही परग्रहियों द्वारा निर्मित करार दे दिया जाता है और मनुष्य के कार्यों पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया जाता है।
हम्पी स्थित प्रस्तर द्वार |
हम्पी का राजनिवास 59000 मीटर के क्षेत्र में फ़ैला हुआ है, यह विजयनगर का पुरातन हिस्सा है, जिसमें हरिहर बुक्का से लेकर राजा कृष्ण देव राय द्वारा निर्मित भवनों का जखीरा है। यह एक आहते से घिरा हुआ जिसमें तैतालिस भवन हैं। यह क्षेत्र ऊंची दोहरी दीवारों से घिरा हुआ है। आहते में तीन प्रवेश द्वार हैं, दो द्वार उत्तर एवं एक द्वार पश्चिम में। यहीं से आहते में प्रवेश के लिए मुख्यद्वार है तथा इसके समीप ही नवरात्रि एवं दशहरा उत्सव मनाने के लिए विशाल मंच बनाया गया है जिसे "महानवमी डिब्बा" कहते हैं। इस मंच पर ही उत्सव के कार्यक्रम होते थे।
हम्पी स्थित प्रस्तर द्वार |
इसके समीप ही कड़प्पा पत्थर से निर्मित दो किवाड़ रखे हुए हैं। इनकी ऊंचाई लगभग 13 फ़ुट एवं चौड़ाई साढे तीन फ़ुट (बंद होने पर लगभग सात फ़ुट) होगी। ये दरवाजे बेड़ीदार बने हुए हैं। आज भी छत्तीसगढ़ अंचल में बबूल की लकड़ी के इस तरह के किवाड़ों (नौबेड़िया) का ग्रामीण अंचल में बहुतायत से उपयोग होता है। इस पत्थर के किवाड़ों का निर्माण शिल्पकार ने बड़ी कुशलता से किया है। दूर से देखने से प्रतीत नहीं होता कि ये किवाड़ पत्थर के होगें। लकड़ी द्वारा निर्मित किवाड़ो की सभी बारीकियों को कील समेत कुशलता से उकेरा गया है। चौखट में स्थापित करने के लिए इनमें नीचे तरफ़ मोटी कील बनाई गई हैं तथा पीछे की तरफ़ बंद करने के लिए अर्गल लगाने के छेद भी बनाए गए हैं।
हम्पी स्थित प्रस्तर द्वार |
कहते हैं कि इस किवाड़ों का उपयोग आहते में प्रवेश करने वाले मुख्यद्वार में किया गया था। इसको खोलने एवं बंद करने के लिए हाथियों का उपयोग किया जाता था। इसे खोलना एवं बंद करना आदमी के बस की बात नहीं थी। परन्तु इन किवाड़ों के अवलोकन के पश्चात मुझे नहीं लगा कि कभी इनका उपयोग किया गया होगा। क्योंकि किवाड़ों में बनी धूरी (कील) में चिकनाई नहीं थी। वह वैसी ही खुरदरी हैं जैसी निर्माण के समय होगी। अगर इन किवाड़ों का उपयोग किया गया होता तो इनकी धूरी खोलने एवं बंद करने के घर्षण के कारण चिकनी होती। जब यह जानने के लिए मैंने धूरी का स्पर्श किया तो बस मुझे यही बात खटक गई थी। हो सकता है इन किवाड़ों का उपयोग छद्म द्वार के रुप में या दिखावटी द्वार के रुप में किया गया हो।
लेथ (खराद) मशीन में निर्मित होता स्तंभ |
राजाओं नें हम्पी में जो निर्माण कार्य किए उसको देखकर देशी-विदेशी चकित रह जाते हैं। विशालकाय एकाश्म शिलाओं की प्रतिमाओं के साथ भव्य मंदिरों एवं भवनों का भी निर्माण हुआ। मंदिरों के निर्माण में विशेषता दिखाई देती है। कई मंदिरों के स्तंभ गोलाकार एवं खरादे हुए हैं। इन स्तभों का निर्माण काले कणाश्म (कड़प्पा) पाषाणों से हुआ है। इन स्तंभों को देख कर मैं सोच रहा था कि इनका निर्माण कैसे किया गया होगा?
लेथ (खराद) मशीन एवं उसपे निर्माण कार्य |
हम्पी भ्रमण के दौरान मुझे इसके प्रमाण अनायास ही मिल गए, ढूंढने के लिए अधिक श्रम नहीं करना पड़ा। दशहरा उत्सव स्थल के समीप मुख्य मार्ग पर अपराधियों को सजा देने के लिए लगाए गए स्तंभों के मध्यम में दो पत्थर रखे हुए हैं, जिन पर खराद (लेथ) करने के चिन्ह दिखाई दे रहे थे। इन्हें देखने के पता चलता है कि लगभग 15 फ़ुट लम्बाई एवं 3X3 फ़ुट के प्रस्तरों का वजन सहने लायक वह कौन सी खराद मशीन होगी, जिस पर इन स्तंभों को तराशा गया होगा और उसके संचालन के लिए कौन सी उर्जा का उपयोग किया गया होगा?
हम्पी के राजमार्ग पर स्तम्भ अवसेष |
भारत में लोहे की खोज बहुत पहले हो गई थी। लोहे से इस्पात भी बनाया जाने लगा था। दक्षिण की दमिश्त तलवारें विश्व प्रसिद्ध थी, उनकी धार एवं मजबूती का लोहा दुनिया मानती थी और यहाँ से उनका निर्यात भी बड़ी मात्रा में होता था। खराद मशीन के निर्माण के लिए इसी लोहे का प्रयोग किया गया होगा तथा चक्र की योजना से खराद बना कर इन स्तभों को कुशल कारीगरों द्वारा तराशा गया होगा। वर्तमान में कणाश्म (ग्रेनाईट) पाषाण को काटने के लिए डायमंड कटर का उपयोग किया जाता है, तब कहीं जाकर यह कठोर पाषाण कटता है।
लेथ से खरादे गए स्तंभ हम्पी |
पन्द्रहवीं शताब्दी में कारीगरों ने ग्रेनाईट काटने के लिए मजबूत लोहे के औजार बनाए और उनसे इन पत्थरों को तराशा। यह उस काल की आश्चर्यचकित करने वाली उत्तम तकनीक थी। विशाल चट्टानों को मशीन पर रज्जु चक्र यंत्र (चैन कुप्पी) की मदद से स्थापित किया जाता होगा और उसका सेंटर लेकर मशीन में बांधा जाता होगा। पन्द्रहवीं सदी में विद्युत का अविष्कार नहीं हुआ था इसलिए मशीन को चलाने के लिए पशुबल का उपयोग किया जाता था। जिस तरह तेल निकालने की मशीन या रहट चलाने के लिए चक्रों का प्रयोग किया जाता था उसी प्रकार इस मशीन को चलाने के लिए चक्रों का प्रयोग किया गया होगा एवं पशुओं के बल से मशीन संचालित होती होगी।
वृषभ शक्ति से चलित जयगढ़ राजस्थान की प्राचीन लेथ (खराद) |
इस मशीन का जीवंत उदाहरण हमें राजस्थान के जयपुर के जयगढ़ दुर्ग 1726 ईं में दिखाई देता है। यहाँ विश्व की सबसे बड़ी तोप "जय बाण" का निर्माण हुआ था। दुर्ग के भीतर तोप बनाने का कारखाना है, जिसमें तोप की ढलाई के बाद उसे वास्तविक रुप देने एवं उसमें छेद करने के लिए पशु संचालित खराद मशीन का उपयोग किया गया था। यह मशीन बैलों से चलती थी। इसे आज भी सुरक्षित रखा गया है। मशीन संचालन की प्रणाली जानने के लिए यह एक अच्छा उदाहरण है। कई वर्षों पहले मैने इस मशीन को देखा था और इसकी संचालन की प्रणाली को समझा था। लकड़ी, लोहे तथा पत्थर को तराशने के लिए खराद मशीन का अविष्कार निर्माण कार्य में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया होगा। जारी है आगे पढें।
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