छत्तीसगढ में सावन मास की अमावश को हरेली (हरियाली) अमावश कहते हैं, यह त्यौहार मूलत: हरियाली के साथ जुड़ा हुआ है। इस दिन को हम त्यौहारों की शुरुवात मानते हैं जो कि होली पर जाकर अंतिम त्योहार आता है।
हरेली त्यौहार के साथ कई किंवदत्तियां जुड़ी है। मुख्यत: किसान इस त्यौहार को हर्षो-उल्लास के साथ मनाते हैं।
इस दिन किसान अपने कृषि के उपकरणो नांगर(हल) रांपा, कुदाल, इत्यादि की पूजा करते हैं और खेतों में भेलवा के पौधे का रोपण करके अच्छी फ़सल की कामना करते हैं। बढिया रोटी-पीठा (पकवान) बनाया-खाया जाता है।
नांगरिहा-हल चलाता |
हरेली त्यौहार के साथ कई किंवदत्तियां जुड़ी है। मुख्यत: किसान इस त्यौहार को हर्षो-उल्लास के साथ मनाते हैं।
इस दिन किसान अपने कृषि के उपकरणो नांगर(हल) रांपा, कुदाल, इत्यादि की पूजा करते हैं और खेतों में भेलवा के पौधे का रोपण करके अच्छी फ़सल की कामना करते हैं। बढिया रोटी-पीठा (पकवान) बनाया-खाया जाता है।
ललित शर्मा द्वारा निर्मित गेड़ी चित्र |
इसे चलाने के लिए संतुलन की कला आना जरुरी है। नहीं तो गिरकर हाथ पैर भी तुड़वा सकते हैं। इसे मजबूत बांस से बनाया जाता है। गांव के बच्चों के साथ हम गेंडी दौड़ लगाते थे। एक बार बांस की खप्पची में फ़ंस कर मेरे पैर का तलुवा भी कट चुका है। चीरे हुए बांस में बहुत धार होती है, कांच जैसे। मैने पिछली हरेली पर एक चित्र भी बनाया था। गेंडी चलाते हुए बच्चों का।
ललित शर्मा द्वारा निर्मित चित्र |
जिसके लिए प्रत्येक ग्राम वासी से तंत्र-मंत्र एवं पूजा करने के लिए एक निश्चित सहयोग राशि ली जाती है और महिलाएं गोबर से घरों के चारों तरफ विभिन आदिम आकृतियाँ बनाकर उसे एक लाइन से जोड़ती है, उसके बाद बैगा सभी के घरों में जाकर नीम की एक छोटी डाली को जाकर दरवाजे में टांगता है, मान्यता है कि इससे अनिष्टकारी शक्तियां घरों में प्रवेश नहीं करती.
इसके बाद किसी भी व्यक्ति को गांव से बाहर निकलकर किसी दूसरी जगह जाने आज्ञा नहीं होती. इस दिन सब अपना काम बंद कर गांव में रहते हैं, और शाम होते ही लोग घरों से बाहर नहीं निकलते. ऐसी मान्यता है कि अँधेरे में तंत्र मंत्र की सिद्धि करने वाले बैगा और टोनही अपनी शक्तियों को जागृत करते हैं. एवं उसका परीक्षण करते हैं. जिससे जो कोई व्यक्ति बाहर निकलेगा उसका अनिष्ट हो सकता है.बैगा (ग्राम तांत्रिक) को गांव में रक्षा करने वाला और टोनही को अनिष्ट करने वाला माना जाता है.
मुझे भी बचपन में मेरी दादी के द्वारा घर से बाहर नही निकलने दिया जाता था. "बाहर मत निकल,आज हरेली कोई टोनही की नजर पड़ गयी तो कुछकर देगी. इस मानसिकता से ग्रसित थे लोग-टोनही नाम का एक अज्ञात भय उनमे समाया हुआ था.बाल-बच्चे -नर-नारी कोई भी रात को बाहर नहीं निकलता था.सिर्फ बैगा और उसके सहयोगी ही रात को बाहर घूम सकते थे.
जैसे जैसे लोग पढ लिख रहे हैं वैसे वैसे जागरुक भी हो रहे हैं,अब इतना भय नहीं रहता हरेली की काली अमावश की रात का। हम रात को भी उठकर घूमते हैं, लेकिन अंदर के गावों में अभी भी ऐसा ही माहौल होता है। जागरुकता आते जा रही है। लेकिन टोनही का अज्ञात भय लोगों को अभी भी सताता रहता है। वर्षों से चली आ रही परम्परा को तो लोग इतनी जल्दी भूलते नहीं है। हरेली त्यौहार से जुड़ी हुई इस टोनही और बैगा की गाथा को लोगों को भूलने में अभी और समय लगेगा।
हरेली त्योहार के विषय में बढिया जानकारी दी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हर क्षेत्र में वर्षों से चली आ रही ऐसी कितनी परंपराएं हैं .. अंधविश्वासों का अवश्य हटाया जाना चाहिए .. पर परंपराएं तो जीवन का हिस्सा होती है .. जानकारी देन का आभार !!
जवाब देंहटाएं... शानदार पेंटिंग्स ... जानदार विषय ... धमाकेदार अभिव्यक्ति!!!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी दी आपने ललित जी!
जवाब देंहटाएंएक जमाने में हरेली के दिन सारे बच्चे गेड़ी पर सवार ही नजर आया करते थे पर आजकल तो गेड़ी का चलन ही बंद हो गया सा लगता है।
बहुत सुन्दर, धन्यवाद भाई.
जवाब देंहटाएंहमू जावत हन रांपा-कुदरी की पूजा करबो.
हरेली तिहार के आप ला गाड़ा गाड़ा बधई.
बहुत सी नयी जानकारी मिली...आभार
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया!
जवाब देंहटाएंगेडी चलाना मुझे भी सीखना है!
जवाब देंहटाएंलाजवाब अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंछत्तीसगढ की शान व पहचान है ""गेडी"" , ललित जी आपका बहुत बहुत आभार।
जवाब देंहटाएंकोई मुझको लौटा दे बचपन का सावन .....
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति.
महराज पाय लगी
जवाब देंहटाएंबने सुरता देवाए
नंदा गे टोनही नंदा गे बैगा
अब तो फैले हे जोतिस के जंजाल
ये पचरा ल छोड़ के करन चारों डहर
हरियाली के देख भाल
अब बन गे हे जघा जघा सड़क
हो गे हें सबो सुकुमार
नंदा गे तेखरे पाय के गेड़ी
डर लगत रथे लईका त लइका
दाई ददा ल घलो, के झन पिरावै ऊंखर एड़ी
जय जोहार.
बरनन बने करे हस तिहार के
हरेली तिहार के आप ला गाड़ा गाड़ा बधई.
जवाब देंहटाएंललित जी, सही कहा आपने। हमें भी बचपन के दिन याद आ गये, जब गर्मी की छुटिटयों में हम अपने गाँव जाते थे और वहाँ खूब धमाल मचाया करते थे।
जवाब देंहटाएं---------
क्या ज़हरीले सांप की पहचान सम्भव है?
नयी जानकारी है हमारे लिए ! शुभकामनायें ललित भाई !
जवाब देंहटाएंअच्छी और सामाजिक सद्भाव की जानकारी देती पोस्ट ,पहले समाज में गरीबी और अभाव के बाबजूद भावना इंसान जैसी थी लोग एक दुसरे के प्रति प्यार और सम्मान रखते थे | आज पैसों ने लोगों में इतना अहं भर दिया है की सामाजिक सद्भाव खत्म सा हो गया है ..
जवाब देंहटाएंबहुत नई और रोचक जानकारी मिली.
जवाब देंहटाएंरामराम.
गेंड़ी शब्द पहली बार सुना । वैसे देखा तो हुआ था ।
जवाब देंहटाएंआज रायपुर साइंस कालेज मैदान में गेंडी दौड़ में हाजिरी का मौका मिला. वहीं नारियल फेंक भी आयोजित हुआ.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लगा यह आलेख... मैंने तो गेंड़ी चलाना ही पहली बार सुना है...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी दी आपने, आप का धन्यवाद
जवाब देंहटाएंलाजवाब अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंमोर तरफ ले घलो सब्बो ब्लागर संगवारी मन ला गाड़ा गाड़ा बधई.
जवाब देंहटाएंबहुत लाजबाब पोस्ट...उम्दा पेन्टिंग्स...सिद्धहस्त कलाकार हो आप.
जवाब देंहटाएंबचपन में मैने भी चलाई है गैंडी.
मुझे तो यह गेंडी पर चढ़ चलने वाली बात सबसे बढ़िया लगी। ऐसा त्योहार तो बच्चों के लिए मजेदार है। वैसे शायद केवल लड़के ही गेंडी पर चढ़ते होंगे?
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
गेंडी जापान में भी है! हम लोग वह 'ताके-उमा' ...'बांस का घोड़ा' कहते हैं। आजकल के बच्चे इस से नहीं खेलते, पर हम लोग भी खुद बनाकर खेलते थे। मज़ा आया।
जवाब देंहटाएं