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आज चार अप्रेल की सुबह थी, हम सबको पुनाखा जाना था। यहां के लिए परमिट थिम्पू से बनवाना पड़ता है। इसलिए यात्रा विलंब से प्रारंभ होने वाली थी। रिसोर्ट से निकलते वक्त मैने वहां रखे अलंकृत लिंग की फ़ोटो ली। भूटान का एक सम्प्रदाय लिंग की पूजा करता है और इसे सृष्टि एवं उर्जा का स्रोत मानता है। सुबह हमें साढे दस बजे परमिट तैयार हो कर मिले। अब हमारी यात्रा पुनाखा जोंग की प्रारंभ हो गई। पुनाखा के बारे में प्रारंभिक जानकारी यह है कि थिम्पू राजधानी से पुनाखा जोंग लगभग 71 किमी की दूरी पर है। यह दूरी 4 घंटे के सफ़र के बाद तय होती है। जोंग किले को कहा जाता है, पुनाखा जोंग भूटान की पूर्व राजधानी रही है। वर्तमान में यह पुनाखा जिले का प्रशासनिक केन्द्र है तथा लामाओं के अध्ययन का केन्द्र भी है।
बुद्धा टॉप की फ़ोटो कई किमी दूर पहाड़ी से |
इसका निर्माण फ़ो चू (पिता नद) एवं मो चू (माता नदी) के संगम पर 1637-38 में गवांग नामग्याल रिन्पोछे ने कराया था। यहां संगम के पश्चात फ़ो चू एवं मो चू नदी का नाम त्सांग चू (संकोश नदी) हो जाता है, जो आगे चलकर ब्रह्मपुत्र में समाहित हो जाती है। यह भूटान का दूसरा सबसे पुराना जोंग है। सुरक्षा की दृष्टी से जोंग के निर्माण में उपयुक्त स्थान का चयन किया गया है। फ़ो चू पार करके किले तक जाने के लिए एक लकड़ी के पुल का निर्माण किया गया है। यहाँ गवांग नामग्याल के पवित्र अवशेष रखे गए हैं। भूटान नरेश जिग्मे खेसर नामग्येल वांगचुक भारत में शिक्षा प्राप्त करने वाली जेटसन पेमा का विवाह भी इसी जोंग में हुआ था।
खुरुथंग घाटी की सुंदर नदी |
पुनाखा का सफ़र राजेश अग्रवाल के सुमधुर फ़िल्मी गानों से हुआ। इसके बाद द्वारिका प्रसाद अगवाल ने भी जनता की फ़रमाईश पर गाने सुनाए। बिकाश बाबू ने भी हाथ आजमाया। नवीन तिवारी एवं संतराम तारक जी ने कविताएं सुनाई। इस तरह सफ़र कट रहा था। रास्ते में एक स्थान पर बादल पुन: सड़क पर आ गए। यहां से हिमालय पर्वत की कुछ चोटियां दिखाई देती हैं परन्तु धुंध के कारण यह संभव नहीं हो सका। इस स्थान को दोचु ला कहते हैं। यहां युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद में स्मारक बनाया गया है।
दोचु ला शहीद स्मारक |
भूटान की सैनिक शक्ति मात्र थल सेना में निहीत है, भूटान के पास न तो जल सेना है, न वायू सेना। आकाशीय सुरक्षा देने की जिम्मेदारी भारतीय सेना की है। 2003 में भूटान के सीमावर्ती वन क्षेत्र में जब उल्फ़ा के उग्रवादियों ने कैम्प लगा लिए थे, भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में सक्रिय विद्रोहियों ने भूटान में भी अपने ठिकाने बना रखे थे जिन्हें वहाँ से बाहर निकालने के लिए भूटान ने सैनिक कार्रवाई चलाई और भूटान की सेना ने भारतीय सेना के सहयोग से उन्हें मार गिराया। इसमें 200 से अधिक भूटानी सैनिक शहीद हो गए। इस युद्ध में भूटान ने अपनी धरती से उल्फ़ा के उग्रवादियों को खदेड़ दिया।
पुनाखा की सुंदर घाटियां और नदी |
इन सैनिकों की शहादत की याद में दोचू ला में स्मारक बनाया गया है। भूटानी सैनिकों का प्रशिक्षण भी भारतीय सेना करती है। भूटान हमारा परम मित्र राष्ट्र है, उसने अपने सैनिक गंवा कर भारत विरोधी शक्तियों को भूटान की जमीं पर टिकने नहीं दिया। इसी से उसकी दोस्ती की प्रतिबद्धता दिखाई देती है। जबकि बंग्लादेश को भारतीय इमदाद कम नहीं मिलती, फ़िर अलगाववादियों वहीं जाकर पनाह लेते हैं और भारत में आतंकवादी गतिविधियाँ बंगलादेश से संचालित करते हैं। भूटानी शहीद सैनिकों को हम नमन करके आगे की यात्रा में चल दिए। दोपहर का भोजन तैयार करके हमारे साथ ही रख दिया गया था।
पुनाखा जोंग के भीतर का प्रांगण |
हम खुरुथंग घाटी में पहुंचे, यह बहुत ही सुंदर घाटी है। यहां से नदी प्रवाहित होती है, जिसमें राफ़्टिंग भी की जाती है। जिसके लिए अलग से अनुज्ञा लेनी पड़ती है। नदी किनारे स्थित दामचेन रिसोर्ट के लॉन में हमने दोपहर का भोजन किया। यहां हम लगभग पौने दो बजे पहुंचे थे। मौसम ठंडा ही था। भोजन करने के पश्चात पुन: यात्रा पर निकल लिए और पौने तीन बजे हम पुनाखा जोंग पहुंचे। यहां पहुंच कर फ़ोटोग्राफ़ी की और पुनाखा जोंग के विषय में जानकारी प्राप्त की। सभी को यह स्थान पसंद आया। विशेषकर फ़ो चू पर बने हुए लकड़ी के पुल ने मन मोह लिया। इस स्थान की हिफ़ाजत के भूटानी सेना भी लगी दिखाई दी। हमने उनके साथ चित्र भी खिंचावाए।
फ़ो चु नदी पुनाखा पर लकड़ी का पुल |
पुनाखा जोंग में पुल के द्वार पर मुझे नेपाली मूल की भूटानी स्त्रियां मिली। वे यहां की गैलरी में नौकरी करती हैं। इनसे हिन्दी में ही चर्चा हुई है। वैसे सभी व्यावसायी भूटानी हिन्दी समझते एवं बोलते हैं। मैं भूटान का कोई गांव देखना चाहता था, मेरे मन में हमारे किसी पहाड़ी गांव जैसे ही यहां के गांव की कल्पना थी, परन्तु शेराब जांगमों ने बताया कि यहां गांव दो या तीन घरों के ही होते हैं। इसलिए गांव देखने की इच्छा धरी की धरी रह गई। हमें यहां से लम्बा सफ़र तय करके आज की रात पारो पहुंचना था। रास्ते में एक स्थान पर भू स्खलन हो रहा था, जहां ट्रैफ़िक जाम था। पहाड़ों में भूस्खलन आम बात है।
फ़ो चु एवं मो चु नदी के संगम पर पुनाखा जोंग |
भारत में भी पहाड़ी रास्तों पर आए दिन भू स्खलन होने से रास्ते बंद होने की खबरें मिलती हैं। यह एक त्रासदी ही है, जिससे नित्य जन जीवन प्रभावित होता है। भू स्खलन के कारण मार्ग बंद हो जाता है और जब तक मलबा हटा कर रास्ता नहीं खोला जाता तब तक यात्री फ़ंसे रहते हैं। मलबा हटाने की कोई समय सीमा नहीं होती, कभी तो आधे दिन में हट जाता है तो कभी दो तीन दिन लग जाते हैं। ये दिन यात्रियों के त्रासदी भरे होते हैं। हम जानते हैं हिमालयिन पर्वत शृंखला समुद्र से बनी है और बरसात के दिनों में पहाड़ों की जमीन वर्षा के कारण पोली हो जाती है, जिसके कारण थोड़ी भी ध्वनि या कंपन से वह पोला हिस्सा ढह जाता है।
भू स्खलन |
पहाड़ी रास्ते एक के ऊपर एक बने होते हैं, अगर भू स्खलन होता है तो रास्तों की कई परतें प्रभावित होती है। मिट्टी पत्थर ऊपर से गिरते हुए नीचे कई कई घूमाव पर रास्तों को बंद कर देते हैं। यहाँ मलबा हटाना भी बड़ी समस्या होती है अगर ऊपर का मलबा नीचे गिरा दिया जाए तो नीचे की सड़क बंद हो जाएगी। ऐसा ही हिम स्खलन से भी होता है। जहाँ बर्फ़ पोली हो जाती है, वह थोड़ी भी थरथराहट या ध्वनि से ट्रिगर हो जाती है, इसे एवलांच कहते हैं, ट्रिगर होने के बाद यह भी बहुत बड़ा नुकसान करती है। मार्ग बंद होने पर इसे भी हटाया जाता है, कई बार तो भू एवं हिमस्खलन से गाड़ियां भी मलबे में दब जाती है और जन हानि हो जाती है।
भूस्खलन के लिए जिम्मेदार कच्ची मिट्टी को हटाते हुए |
भू एवं हिमस्खलन की समस्या से बचने के लिए सजग सरकारें मार्ग के समीप उन स्थानों का चयन करती है, जहां भू स्खलन या हिम स्खलन की संभावना बन रही है, मिट्टी या बर्फ़ पोली होती जा रही है, कई बार बादलों की गड़गड़ाहट से ही ट्रिगर हो जाता है और मलबा सड़क पर पहुंच जाता है। ग्रीष्म काल में ऐसे स्थानों को चिन्हित कर उस स्थानी पोली मिट्टी को मशीनो के द्वारा या बारुद लगा कर गिरा दिया जाता है। ऐसी ही प्रक्रिया बर्फ़ीले रास्तों के लिए भी अपनाई जाती है,
पुनाखा जोंग में एक विद्यार्थी |
यहाँ गोले दाग कर बर्फ़ को ट्रिगर कर दिया जाता है और फ़िर रास्ता साफ़ कर दिया जाता है। ताकि कोई दुर्घटना न हो सके। भूटान के लौटते हुए एक स्थान पर ऐसे ही पोली मिट्टी को हटा कर भू स्खलन की समस्या से निजात पाई जा रही थी। जिसके चित्र लेने का मुझे अवसर मिला। यहां के ट्रैफ़िक जाम से हमें जल्द ही रिहाई मिल गई। थिम्पू के पहले हमने एक स्थान पर पहुंच कर चाय पी जब थिम्पू पहुंचे तो रात के आठ बज चुके थे। यहां से हमें पारो जाना था।
संझा के समय अंकित के साथ चाय चर्चा |
थिम्पू से पारो का सफ़र लगभग एक घंटे का है, पारो में एयरपोर्ट होने के कारण सड़क बहुत बढिया बनी हुई है। सपाटे से चलते हुए हम रात नौ बजे के लगभग पारो पहुंच गए। यहां के रिसोर्ट का नाम दाचेन हिल रिसोर्ट था। सभी ने अपना सामान बस से नीचे उतार दिया, जिसे यहां काम करने वाली लड़कियों ने कमरे में शिफ़्ट कर दिया। यहां भी कमरे ऊपर नीचे बने हुए थे। टीकाराम वर्मा जी ने एक बार फ़िर शिकायत की उन्हें ऊपर का कमरा दे दिया गया है। अब इस समस्य का समाधान तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं था। कल कार्यक्रम पारो भ्रमण का था। कुछ लोगो को टायगर मोनेस्ट्री देखने जाना था। खड़ी चढाई होने के कारण कुछ लोग मना कर रहे थे। दल दो हिस्सों में बंट गया था। जारी है आगे पढें…
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