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किसी भी पर्यटक स्थल पर ध्वनि एवं प्रकाश कार्यक्रम में किसी एक इमारत पर प्रकाश की व्यवस्था की जाती है और ध्वनि के माध्यम से वहां का इतिहास एवं जानकारी दी जाती है। ओरछा में राजमहल के प्रांगण में यह व्यवस्था की गई है। मध्यप्रदेश के पर्यटन विभाग द्वारा यहाँ कुर्सियां लगा कर तात्कालिक व्यवस्था की जाती है। लगभग सौ कुर्सियां लगाई गई थी। जिनमें आधी कुर्सियों पर वीआईपी लोगों के परिजनों का ही कब्जा था। नौ बजे के बाद ध्वनि एवं प्रकाश कार्यक्रम प्रारंभ हुआ।
रंग बिरंगे लट्टुओं की मद्धम रोशनी में अमिताब बच्चन ओरछा की कथा बताना शुरु करते हैं, प्रकाश एवं संगीत के बीच एक इंद्रजाल से बुना जाता है, कुर्सी पर मुंह फ़ाड़े लोग प्रकाश के करतब के साथ ऐतिहासिक गाथा में बहते चले जाते है। यह एक तरह का तिलस्म ही लगता है। ओरछा की गाथा पौराणिक काल से प्रारंभ होती है। वैदिक काल से लेकर मौर्यकाल तक बुंदेलखंड का पौराणिक काल माना जा सकता है। इस दौरान यह प्रसिद्ध राजाओं के अधिकार में रहा। विशेषकर चंद्रवंशी शासकों की लम्बी सूची मिलती है।
मौर्य वंश के तीसरे राजा अशोक ने बुंदेलखंड के अनेक स्थानों पर विहारों, मठों आदि का निर्माण कराया था । वर्तमान गुर्गी (गोलकी मठ) अशोक के समय का सबसे बड़ा विहार था। बुंदेलखंड के दक्षिणी भाग पर अशोक का शासन था जो उसके उज्जयिनी तथा विदिशा मे रहने से प्रमाणित है। परवर्ती मौर्यशासक दुर्बल थे और कई अनेक कारण थे जिनकी वजह से अपने राज्य की रक्षा करने मे समर्थ न रहै फलत: इस प्रदेश पर शुङ्ग वंश का कब्जा हुआ। इसके पश्चात वाकाटक एवं गुप्तों के शासन के बाद कलचुरियों का भी शासन रहा। त्रिपुरी के कल्चुरियों के शासन के पश्चात बुंदेलों का शासन प्रारंभ होता है।
महोबा चन्देलों का केन्द्र था। हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद गहरवारों ने इस पर अधिकार कर लिया था। गहरवारों को पराजित करने वाले परिहार थे। स्मिथ और कीनधम ने इस जनश्रुति का समर्थन अपने ग्रंथों में किया है। केशवचन्द्र मिश्र का कथन है कि चन्द्रात्रेय से नन्नुक के राज्यकाल तक का (सन 740 से 831 तक) 10 वर्ष तक का समय चन्देलों के उदय का काल है। इस वंश के प्रमुख शासक मुनि चन्द्रात्रेय, नृपति भूभुजाम और नन्नुक हैं। धंग के खजुराहो शिलालेख से इसका प्रमाण मिलता है। इसी संदर्भ मे कोक्कल के लेख और ताम्रपत्रों से प्रभूत सामग्री मिलती है।
चंदेलों के पश्चात बुंदेलों का शासन प्रारंभ हुआ। बुंदेल क्षत्रीय जाति के शासक थे तथा सुदूर अतीत में सूर्यवंशी राजा मनु से संबन्धित माने जाते हैं। अक्ष्वाकु के बाद रामचन्द्र के पुत्र "लव' से उनके वंशजो की परंपरा आगे बढ़ाई गई है। इस तरह बुंदेलों के इतिहास का कारवां आगे बढता है। इसमें कहानियाँ, किंवदन्तियां और वास्तविकता के साथ कथा आगे बढती है। इनकी पीढी में एक राजा हेमकरण हुआ, उसने देवी के समक्ष अपनी गर्दन पर जब तलवार रखी और स्वयं की बलि देनी चाही तो देवी ने उसे रोक दिया परंतु तलवार की धार से हेमकरन के रक्त की पांच बूंदें गिर गई थीं इन्हीं के कारण हेमकरन का नाम पंचम बुंदेला पड़ा था।
ओरछा दरबार के पत्र में अभी भी पूर्ववर्ती विरुद्ध के प्रमाण मिलते हैं जैसे - श्री सूर्यकुलावतन्स काशीश्वरपंचम ग्रहनिवार विन्ध्यलखण्डमण्लाहीश्वर श्री महाराजाधिराज ओरछा नरेश। चूंकि हेमकरन को विन्ध्यवासिनी देवी का वरदान रविवार को मिला था, ओरछा में आज भी पवरात्र महोत्सव में इस दिन नगाड़े बनाये जाते हैं। मिर्जापुर स्थित गौरा भी हेमकरन के बाद गहरवारपुरा के नाम से प्रसिद्ध है। इसके बाद का चक्र बड़ी तेजी से घूमा और वीरभद्र ने गदौरिया राजपूतों मे अँटेर छीन लिया और महोनी को अपनी राजधानी बनाया।
नए राजा राजपाट संभालते हैं, पुराने इतिहास में दर्ज होते जाते हैं। रुद्रप्रताप के साथ ओरछा के शासकों का युगारंभ होता है। ओरछा की स्थापना मन 1530 में हुई थी। रुद्रप्रताप बड़ नीतिज्ञ था, ग्वालियर के तोमर नरेशों से उसने मैत्री संधी की। उसके मृत्यु के बाद भारतीचन्द्र (1531 ई०-1544 ई०) गद्दी पर बैठा। हुमायूँ को जब शेरशाह ने पदच्युत करके सिंहासन हथियाया था तब उसने बुंदेलखंड के जतारा स्थान पर दुर्ग बनवा कर हिन्दु राजाओं को दमित करने के निमित्त अपने पुत्र सलीमशाह को रखा। कलिं का किला कीर्तिसिंह चन्देल के अधिकार में था। शेरशाह ने इस पर किया तो भारतीचन्द ने कीर्तिसिंह की सहायता ली। शेरशाह युद्ध में मारा गया और उसके पुत्र सलीमशाह को दिल्ली जाना पड़ा।
भारतीचन्द के उपरांत मधुकरशाह (1554 ई०-1592 ई०) गद्दी पर बैठा। इसके बाद समय में स्वतंत्र ओरछा राज्य की स्थापना हुई। अकबर के बुलाने पर जब वे दरबार में नही पहुँचा तो सादिख खाँ को ओरछा पर चढ़ाई करने भेजा गया। युद्ध में मधुकरशाह हार गए। मधुकरशाह के आठ पुत्र थे, उनमें सबसे ज्येष्ठ रामशाह के द्वारा बादशाह से क्षमा याचना करने पर उन्हें ओरछा का शासक बनाया गया। राज्य का प्रबन्ध उनके छोटे भाई इन्द्रजीक किया करते थे। केशवदास नामक प्रसिद्ध कवि इन्हीं के दरबार में थे। इन्द्रजीत का भाई वीरसिंह देव (जिसे मुसलमान लेखकों ने नाहरसिंह लिखा है) सदैव मुसलमानों का विरोध किया करता था) उसे कई बार दबाने की चेष्टा की गई पर असफर ही रही। अबुलफज़ल को मारने में वीरसिंहदेव ने सलीम का पूरा सहयोग किया था, इसलिए वह सलीम के शासक बनते ही बुंदेलखंड का महत्वपूर्ण शासक बना। जहाँगीर ने इसकी चर्चा अपनी डायरी में की है।
वीरसिंह देव (1605 ई० - 1627 ई०) के शासनकाल में ओरछा में जहाँगीर महल तथा अन्य महत्वपूर्ण मंदिर बने थे। जुझारसिंह ज्येष्ठ पुत्र थे, उन्हें गद्दी दी गई और शेष 11भाइयों को जागीरें दी गई। सन् 1633 ई० में जुझारसिंह ने गोड़ राजा प्रेमशाह पर आक्रमण करके चौरागढ़ जीता परंतु शाहजहाँ नें प्रत्याक्रमण किया और ओरछा खो बैठे। उन्हें दक्षिण की ओर भागना पड़ा। उनके कुमारों को मुसलमान बनाया गया तथा वे कहीं पर दक्षिण में ही मारे गये। वीरसिंह के बाद ओरछा के शासकों में देवीसिंह और पहाड़सिहं का नाम लिया जाता है परंतु ये अधिक समय तक राज न कर सके।
इसके बाद चम्पतराय से चलकर इतिहास छत्रसाल तक पहुंचता है। छत्रसाल मुगलों से स्वतंत्र राज करना चाहता था। औरंगज़ेब ने इन्हें भी दबाने की कोशिश की पर सफल न हुए। छत्रसाल स्वयं कवि थे। छत्तरपुर इन्हीं ने बसाया था। कलाप्रेमी और भक्त के रुप में भी इनकी ख्याती थी। धुवेला-महल इनकी भवन निर्माण-कला की स्मृति दिलाता है। बुंदेलखंड की शीर्ष उन्नति इन्हीं के काल में हुई। छत्रसाल की मृत्यु के बाद बुंदेलखंड राज्य भागों में बँट गया। एक भाग हिरदेशाह, दूसरा जगतराय और तीसरा पेशवा को मिला। छत्रसाल की मृत्यु 13 मई सन् 1731 में हुई थी।
इस बीच जुझार सिंह के भाई लाला हरदौल की करुण कथा भी सुनाई जाती है। जिसमें जुझार सिंह रानी के संबंध छोटे भाई से होने की शंका पाल कर रानी द्वारा उसे जहर देने का आदेश देता है। हरदौल भाभी की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए जहर सेवन कर लेता है और उसकी मृत्यू हो जाती है। राजा इंद्रजीत के काल में राज नर्तकी एवं कवियत्री राय प्रवीण का उनसे प्रेम एवं अकबर द्वारा राय प्रवीण को अपने दरबार में भेजने की कथा सुनाई जाती है। राय प्रवीण अपने बौद्धिक बल से कबित्त पढ जुगत लगाकर अकबर को चकमा देकर ओरछा लौट आती है। इस तरह ओरछा की कथा सुनाकर प्रकाश एवं ध्वनि प्रदर्शन का समापन हो जाता है। जारी है आगे पढें……
प्रकाश एवं संगीत के साथ ऐतिहासिक गाथा का तिलस्म इन चित्रों व व आपके शब्दों की जादूगरी के माध्यम से जितना महसूस किया है, उसके हिसाब से मन कहता है हम भी जल्द से जल्द देखना चाहते हैं इस सुन्दर विरासत को। बहुत - बहुत आभार आपका इसे हम सभी तक पहुँचाने के लिए...
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