सुबह अस्पताल पहुँचा एक मित्र का हाल-चाल पूछने तो देखा कि अस्पताल के गेट पर सुखवंतिन खड़ी-खड़ी रो रही थी। मै उसे पूर्व से परिचित था, वह गांव की रहने वाली थी। मैने उसे रोने और अस्पताल आने का कारण पूछा तो उसने बताया कि उसके पति का एक्सीडेंट हो गया है,
शाम को छुट्टी होने पर सायकिल से घर आ रहा था तो किसी मेम साहब ने कार से उसे टक्कर मार दी और फ़रार हो गयी। इधर उसे पुलिस वालों ने लाकर सरकारी अस्पताल मे भर्ती कर दिया। उसके दोनो पैर टुट गए थे। डॉक्टरों ने तत्काल आपरेशन की जरुरत बताई तथा 15 हजार का खर्चा बताया।
सुखवंतिन ने तुरंत गहने बेच कर कर्ज लेकर पैसे उपलब्ध कराए। उसका आपरेशन हो गया लेकिन अब दवाई के पैसे नही थे। उसने किसी से पैसे मांगे थे तो वह लेकर नहीं आया था।
शाम को छुट्टी होने पर सायकिल से घर आ रहा था तो किसी मेम साहब ने कार से उसे टक्कर मार दी और फ़रार हो गयी। इधर उसे पुलिस वालों ने लाकर सरकारी अस्पताल मे भर्ती कर दिया। उसके दोनो पैर टुट गए थे। डॉक्टरों ने तत्काल आपरेशन की जरुरत बताई तथा 15 हजार का खर्चा बताया।
सुखवंतिन ने तुरंत गहने बेच कर कर्ज लेकर पैसे उपलब्ध कराए। उसका आपरेशन हो गया लेकिन अब दवाई के पैसे नही थे। उसने किसी से पैसे मांगे थे तो वह लेकर नहीं आया था।
अब यह एक बहुत बड़ी समस्या थी, इलाज के साथ दवाईयाँ भी मंहगी हो गयी, एक कमाते खाते आदमी पर अचानक विपत्ति आ जाए तो वह क्या करे? किसके पास जाए?
सरकारी अस्पतालों का रवैया तो कभी सुधरने वाला नही है। हमेशा सामान एवं दवाइयों की कमी का रोना रोते रहते हैं। निजी अस्पताल तो मरीज की मौत के बाद बिना पैसे लिए लाश नही देते, मुर्दे को ही ग्लुकोश चढाते रहते हैं,
इस विषय पर कई जगह हंगामा भी हो चुका है। दवाओं की कीमते बेलगाम हो गयी हैं, सभी का कमीशन दवाई कम्पनियों से बंधा हुआ हैं। 50 पैसे की गोली 10 रुपये में बेची जा रही है, दवाई कम्पनियों, रिटेल काउंटरो एव डॉक्टरों का गिरोह दोनो हाथों से मरीजों को लूट रहा है।
औसतन 2000 रुपये प्रतिमाह कमाने वाले परिवार को लगभग 300 से 400 रुपये बीमारी पर खर्च करने पड़ रहें हैं। बाकी बची हुई कसर नकली दवाएं पूरी कर रही हैं।
सरकारी अस्पतालों का रवैया तो कभी सुधरने वाला नही है। हमेशा सामान एवं दवाइयों की कमी का रोना रोते रहते हैं। निजी अस्पताल तो मरीज की मौत के बाद बिना पैसे लिए लाश नही देते, मुर्दे को ही ग्लुकोश चढाते रहते हैं,
इस विषय पर कई जगह हंगामा भी हो चुका है। दवाओं की कीमते बेलगाम हो गयी हैं, सभी का कमीशन दवाई कम्पनियों से बंधा हुआ हैं। 50 पैसे की गोली 10 रुपये में बेची जा रही है, दवाई कम्पनियों, रिटेल काउंटरो एव डॉक्टरों का गिरोह दोनो हाथों से मरीजों को लूट रहा है।
औसतन 2000 रुपये प्रतिमाह कमाने वाले परिवार को लगभग 300 से 400 रुपये बीमारी पर खर्च करने पड़ रहें हैं। बाकी बची हुई कसर नकली दवाएं पूरी कर रही हैं।
स्वास्थ्य पर कमाई का ज्यादा हिस्सा खर्च होने के कारण गरीबी और बढती ही जा रही है। योजना आयोग की रिपोर्ट (2009) में बताया गया है कि ग्रामीण भारत के जो लोग गरीबी रेखा के नी्चे आ रहे हैं उसमे आधे लोगों के लिए इसका बड़ा कारण स्वास्थ्य पर खर्च है
अनुमान है कि वर्ष 2004-2005 में इस कारण लगभग 3करोड़ 90लाख लोग गरीबी की चपेट में आ गए। अब ये आंकड़े तो पुराने हैं आज के हालात का आप अंदाजा लगा सकते हैं।एक अध्ययन के अनुसार 1987-88 में इलाज करवाने के लिए 60%लोग सरकारी अस्पतालों में जाते थे। पर अब 40%लोग ही सरकारी अस्पतालों में जा रहे हैं।
जब कोई प्राईवेट डॉक्टर नही मिलता तभी हम सरकारी अस्पताल का रुख करते हैं। स्पष्ट है कि सरकारी अस्पताल और निजी अस्पताल दोनों में इलाज मंहगा हुआ है।
दवा कम्पनियों ने कीमतों में तेजी से वृद्धि की है। इन कीमतों पर तो सरकार का नियंत्रण समाप्त हो गया है। बड़ी कम्पनियों की मनमानी बढ गयी है।
अनुमान है कि वर्ष 2004-2005 में इस कारण लगभग 3करोड़ 90लाख लोग गरीबी की चपेट में आ गए। अब ये आंकड़े तो पुराने हैं आज के हालात का आप अंदाजा लगा सकते हैं।एक अध्ययन के अनुसार 1987-88 में इलाज करवाने के लिए 60%लोग सरकारी अस्पतालों में जाते थे। पर अब 40%लोग ही सरकारी अस्पतालों में जा रहे हैं।
जब कोई प्राईवेट डॉक्टर नही मिलता तभी हम सरकारी अस्पताल का रुख करते हैं। स्पष्ट है कि सरकारी अस्पताल और निजी अस्पताल दोनों में इलाज मंहगा हुआ है।
दवा कम्पनियों ने कीमतों में तेजी से वृद्धि की है। इन कीमतों पर तो सरकार का नियंत्रण समाप्त हो गया है। बड़ी कम्पनियों की मनमानी बढ गयी है।
हमारे देश में दवाईयों की कीमतों पर नियंत्रण करने के लिए एक आदेश 1995में जारी किया गया था। उस समय इसकी आलो्चना भी हुई थी कि यह अधुरा है अनेक जरुरी दवाएं इसकी दायरे में नहीं आती। इसकी बजाय दुसरा आदेश लाने पर विचार हुआ लेकिन 15वर्षों के बाद भी दवाओं की कीमतों पर नियंत्रण करने वाला आदेश लाया नही जा सका है।
इससे स्पस्ट है कि दवाई कम्पनियों का सरकार पर कितना दबाव है। सरकारी तंत्र की इच्छा शक्ति में कमी के कारण गरीब पिस रहे हैं बीमारी और मंहगाई के दो पाटों के बीच।
पता नही कितनी सुखवंतिन अस्पतालों के गेट के पास खड़ी अपने दुर्भाग्य को रो रही हैं। अपने सुहाग को बचाने की जी तोड़ कोशिश कर रही हैं लेकिन नक्कार खाने में तूती की आवाज कौन सुनता है?
सिक्कों की खनक के सामने उसके करुण रुदन की कोई कीमत नही। मानवता मरते जा रही है, बाजारीकरण सब लील गया है और छोड़ गया है गरीबों को भगवान भरोसे मरने के लिए.............।
इससे स्पस्ट है कि दवाई कम्पनियों का सरकार पर कितना दबाव है। सरकारी तंत्र की इच्छा शक्ति में कमी के कारण गरीब पिस रहे हैं बीमारी और मंहगाई के दो पाटों के बीच।
पता नही कितनी सुखवंतिन अस्पतालों के गेट के पास खड़ी अपने दुर्भाग्य को रो रही हैं। अपने सुहाग को बचाने की जी तोड़ कोशिश कर रही हैं लेकिन नक्कार खाने में तूती की आवाज कौन सुनता है?
सिक्कों की खनक के सामने उसके करुण रुदन की कोई कीमत नही। मानवता मरते जा रही है, बाजारीकरण सब लील गया है और छोड़ गया है गरीबों को भगवान भरोसे मरने के लिए.............।
ग़रीबों के लिए बने कुछ सरकारी अस्पताल भी आज अपनी ख़स्ता हालत से जूझ रहे है....सरकार को थोड़ा गंभीर होने की ज़रूरत है इस बारे में...
जवाब देंहटाएं"इलाज के साथ दवाईयाँ भी मंहगी हो गयी, एक कमाते खाते आदमी पर अचानक विपत्ति आ जाए तो वह क्या करे?"
जवाब देंहटाएंबाजारीकरण के इस युग में गरीब की जिन्दगी की कुछ कीमत है क्या?
संवेदनशीलता से लिखी आपकी ये पोस्ट सच में विचारणीय है....एक तरफ हमारा देश चिकित्सा के क्षेत्र में नए आयाम हासिल कर रहा है तो दूसरी ओर गरीब आदमी अपना इलाज करने के लिए तरस रहा है..
जवाब देंहटाएंऐसी हालत में लाचार अपने को संतोष दिलाने के लिए गरीब ओझाओं के पास जाएं .. और हम अंधविश्वासी कह उनपर हंसे .. तो ये हमारी मूर्खता ही होगी .. जबतक सरकार के द्वारा जन जन तक शिक्षा और इलाज की व्यवस्था नहीं होगी .. समाज से अंधविश्वास दूर किया जाना नामुमकिन है !!
जवाब देंहटाएंइस अवस्था के लिए हमारी राजनीतिक व्यवस्था ही मूल रूप से जिम्मेदार है . इस पर एक पोस्ट लिखने का विचार बहुत समय से है .
जवाब देंहटाएंDoctor socity people law govt all are responsible.
जवाब देंहटाएंyou are right
jai hind
बहुत मुश्किल है. गरीब का आजकल खना पीना, इलाज स्कूल सब दूभर हो गया है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
ललित जी , राज्यों का तो पता नहीं , लेकिन यहाँ दिल्ली में तो सरकारी अस्पतालों में ज़रुरत की सभी दवाइयां मुफ्त उपलब्ध होती हैं।
जवाब देंहटाएंअब तो जन औषध भण्डार के नाम से जेनेरिक दवाइयां भी सस्ते में मिलती हैं।
लेकिन भ्रष्टाचार की कोई गारंटी नहीं।
ललित जी , हैडर लगा लिया है । अभी कुछ फेर बदल बाकी है। आभार ।
आप का लेख पढ कर दिल बहुत दुखी हुआ,जो मेम साहब इन्हे मार कर भाग गई, क्या उन्हे इस परिवार की बद दुयाए नही लगेगी??दिल चाहता है कि सब की मदद करे लेकिन कितनो की??? यहां तो सभी बेचारे बहुत दुखी है
जवाब देंहटाएंललित जी, इस धरती से धीरे-धीरे संवेदनाएं समाप्त होती जा रही है. अभी कल-परसों ही एक समाचार था, की एक महिला का एक्सीडेंट हुआ और लोग उसके शरीर के ऊपर से ही अपने वाहनों को चलते रहे, किसी ने भी उसके बारे में नहीं सोचा.
जवाब देंहटाएंइस विषय से सम्बंधित मेरा लेख:
"समाप्त होती संवेदनाएं"
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जवाब देंहटाएंधरती से धीरे-धीरे संवेदनाएं समाप्त होती जा रही है
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