वर्तमान में स्कूलों की पढाई देखकर लगता है कि बच्चों का बचपन ही खत्म हो गया है, जो हँसी और खिलंदड़ापन बचपन में होता था, वह अब दिखाई नहीं देता। बच्चों का बचपन खो गया है और वे असमय ही वृद्ध हो गये हैं, जरुरत है आज उनके बचपन को बचाने की क्योंकि बचपन फ़िर लौटकर नहीं आता।
आज विद्यार्थी मानसिक दबाव में अपनी पढाई कर रहा है, अच्छे रिजल्ट और प्रतिशत पाने का दबाव उस पर हमेंशा बना रहता है। इस दबाव के परिणाम स्वरुप वह अवसाद का भी शिकार हो जाता है। मेरे मित्र की लड़की के साथ भी यही हुआ।
उसके बाद उसे 5 साल सामान्य होने में लगे। लेकिन जब हम लोग पढते थे तब ऐसा कुछ नहीं था, बिंदास मस्ती करते और जब मस्ती से समय बचता तो पढ भी लेते। सुनिए जब पांचवी पास होकर बड़े स्कूल (मिडिल स्कूल, उसे सब बड़ा स्कूल कहते थे) पहुंचे तो गजब ही हो गया।
हम जिस स्कूल में भर्ती हुए वहां सिर्फ़ कस्बे के बच्चे ही पढते थे। जो गांव की दृष्टि में तो शहर था। बड़े स्कूल में आस-पास के लगभग 20 गांव के बच्चे थे। जो 10 किलोमीटर तक से पढने आते थे। जब हम पहुंचे तो देखा कि वहां तो बच्चे क्या बड़े-बड़े लड़के भी पढने आए हैं।
जिनके दाढी मूंछ आ गयी है और हम सब पि्द्दी से थे। बड़ा ही अजीब लगा कि इतने बड़े-बड़े लड़के भी छठवीं क्लास में पढेगें? इतने बड़े तो हमारे गुरुजी थे जो हमें प्रायमरी में पढाते थे। हम होगें 10-11 साल के, वे लड़के थे 15-16 साल के, कुछ अजीब ही लगता रहा कु्छ महीनों तक। फ़िर बाद में जाकर कुछ सामान्य सा लगने लगा।
आज विद्यार्थी मानसिक दबाव में अपनी पढाई कर रहा है, अच्छे रिजल्ट और प्रतिशत पाने का दबाव उस पर हमेंशा बना रहता है। इस दबाव के परिणाम स्वरुप वह अवसाद का भी शिकार हो जाता है। मेरे मित्र की लड़की के साथ भी यही हुआ।
उसके बाद उसे 5 साल सामान्य होने में लगे। लेकिन जब हम लोग पढते थे तब ऐसा कुछ नहीं था, बिंदास मस्ती करते और जब मस्ती से समय बचता तो पढ भी लेते। सुनिए जब पांचवी पास होकर बड़े स्कूल (मिडिल स्कूल, उसे सब बड़ा स्कूल कहते थे) पहुंचे तो गजब ही हो गया।
हम जिस स्कूल में भर्ती हुए वहां सिर्फ़ कस्बे के बच्चे ही पढते थे। जो गांव की दृष्टि में तो शहर था। बड़े स्कूल में आस-पास के लगभग 20 गांव के बच्चे थे। जो 10 किलोमीटर तक से पढने आते थे। जब हम पहुंचे तो देखा कि वहां तो बच्चे क्या बड़े-बड़े लड़के भी पढने आए हैं।
जिनके दाढी मूंछ आ गयी है और हम सब पि्द्दी से थे। बड़ा ही अजीब लगा कि इतने बड़े-बड़े लड़के भी छठवीं क्लास में पढेगें? इतने बड़े तो हमारे गुरुजी थे जो हमें प्रायमरी में पढाते थे। हम होगें 10-11 साल के, वे लड़के थे 15-16 साल के, कुछ अजीब ही लगता रहा कु्छ महीनों तक। फ़िर बाद में जाकर कुछ सामान्य सा लगने लगा।
जब हम आठवीं क्लास में पहुंचे तो पता चला कि उनमें बहुतों की शादी हो गयी है। यह और भी गजब था, अब तक हमें पता चल गया था कि शादी होती है तो बहू भी आती है :)।
नाइयों का एक लड़का था, वह हमारे साथ प्रायमरी से ही पढता था, इस लगन में उसकी भी शादी हो गई। उसका घर हमारे स्कूल के रास्ते में ही पड़ता था तो उत्सुक्तावश उसके घर में रुक जाते कि बहू कैसी है देखने के लिए। लेकिन लड़के का बाप उसे गुर्राता था कि इन लड़कों को मत बुलाए कर।
एक दिन हमने नाई से कह ही दिया कि काका हमको भौजी से मिलवाओ, उनसे बिना मिले नहीं जाएगें। नहीं हमारा रोज का धरना यहीं रहेगा आते-जाते। एक दिन उसने हमें भौजी से मिलवाया तब उसका पीछा छूटा।
अभी कुछ दिन पहले वो लड़का मुझे मिला था तो पता चला कि उसने एक और शादी कर ली है। पहली बीबी से तीन बच्चे है तथा दूसरी दहेज में दो और लेकर आई है। सीधे- सीधे दो का फ़ायदा हो गया। बिना किसी खर्चे के। बचपन की शादी का यह हश्र होता है इससे पता चला।
नाइयों का एक लड़का था, वह हमारे साथ प्रायमरी से ही पढता था, इस लगन में उसकी भी शादी हो गई। उसका घर हमारे स्कूल के रास्ते में ही पड़ता था तो उत्सुक्तावश उसके घर में रुक जाते कि बहू कैसी है देखने के लिए। लेकिन लड़के का बाप उसे गुर्राता था कि इन लड़कों को मत बुलाए कर।
एक दिन हमने नाई से कह ही दिया कि काका हमको भौजी से मिलवाओ, उनसे बिना मिले नहीं जाएगें। नहीं हमारा रोज का धरना यहीं रहेगा आते-जाते। एक दिन उसने हमें भौजी से मिलवाया तब उसका पीछा छूटा।
अभी कुछ दिन पहले वो लड़का मुझे मिला था तो पता चला कि उसने एक और शादी कर ली है। पहली बीबी से तीन बच्चे है तथा दूसरी दहेज में दो और लेकर आई है। सीधे- सीधे दो का फ़ायदा हो गया। बिना किसी खर्चे के। बचपन की शादी का यह हश्र होता है इससे पता चला।
जब हम 10 वीं में पहुंचे तो एक-एक, दो-दो बच्चों के बापों के साथ बैठकर पढ़े। इतने सीनियर लोगों के साथ एक साथ बैठकर पढना भी गर्व की बात है। सांसारिक ज्ञान सीधा ही ट्रांसफ़र हो जाता था।
हमारे साथ जो लड़कियाँ पढती थी उनकी तो पांचवी-छटवीं में ही शादी हो गयी थी। अब तो वे दादी-नानी बन चुकी हैं जबकि कोई ज्यादा दिनों की सी बात नहीं लगती।
उस समय मैट्रिक पास होने वाला लड़का गबरु जवान हो जाता था। आज कर मैट्रिक पास लड़के पिद्दी से नजर आते हैं। इतनी बड़ी क्लास पास करने वाले को बड़ा तो होना ही चाहिए यह मान्यता उस वक्त थी।
मैट्रिक पास करते-करते 20-22 साल के हो ही जाते थे। उन्हे पढैया नाम से जाना जाता था, घर में उनके लिए अलग ही वातावरण होता था कि पढैया को कोइ भी घरेलु काम मत बताओ। उसकी पढाई में व्यवधान उत्पन्न हो जाएगा। इसलिए उसे घरेलु कामों से अलग ही रखा जाता था।
हमारे साथ जो लड़कियाँ पढती थी उनकी तो पांचवी-छटवीं में ही शादी हो गयी थी। अब तो वे दादी-नानी बन चुकी हैं जबकि कोई ज्यादा दिनों की सी बात नहीं लगती।
उस समय मैट्रिक पास होने वाला लड़का गबरु जवान हो जाता था। आज कर मैट्रिक पास लड़के पिद्दी से नजर आते हैं। इतनी बड़ी क्लास पास करने वाले को बड़ा तो होना ही चाहिए यह मान्यता उस वक्त थी।
मैट्रिक पास करते-करते 20-22 साल के हो ही जाते थे। उन्हे पढैया नाम से जाना जाता था, घर में उनके लिए अलग ही वातावरण होता था कि पढैया को कोइ भी घरेलु काम मत बताओ। उसकी पढाई में व्यवधान उत्पन्न हो जाएगा। इसलिए उसे घरेलु कामों से अलग ही रखा जाता था।
इस तरह दबाव मुक्त वातावरण में विद्यार्थी का मानसिक विकास के साथ-साथ शारीरिक विकास भी निर्बाध गति से होता था। इन 25-30 वर्षों में कितना परिवर्तन आ गया है।
आज 15 साल का बच्चा मैट्रिक पास कर लेता है और उसके दिमाग में आगे भविष्य की योजनाएं चलते रहती हैं जिससे लगता है कि बाल सुलभ उछल-कूद, हंसी-ठिठोली जैसे उसके जीवन से गायब ही हो गयी है। एक अलग ही तरह का माहौल हो गया है, जैसे कोई गर्दभ रेस की तैयारी हो रही है।
विद्यार्थी गंभीर दबाव के वातावरण में जी रहा है। जिसका प्रभाव उसके शारीरिक विकास पर पड़ रहा है। अगर वह इस दौड़ में शामिल न हो तो भी मुस्किल है औरों से पीछे रह जाएगा। कैसी विडम्बना है यह?
अगर हम आंकड़े उठाकर देखे तो हाल के 8 वर्षों में विद्यार्थियों में आत्महत्या के मामले बढे हैं। अपनी पढाई और रिजल्ट को लेकर इतना मानसिक दबाव उन्हे झेलना पड़ता है कि कई तो इसे सहन ही नहीं कर पाते।
बोर्ड परीक्षा के परिणाम आने से पहले ही आत्म हत्या कर लेते हैं, कई परिणामों के बाद। वर्तमान में विद्यार्थियों में एक भय परिक्षा परिणामों के प्रतिशत को लेकर भी होता है, अगर कम प्रतिशत मिले तो अच्छे स्कूल कालेजों में प्रवे्श नहीं मिलेगा।
पहले ऐसा नहीं था, प्रतिशत कम हो या ज्यादा जो पढना चाहता है उसे प्रवेश मिल ही जाता था और सभी पढाई कर लेते थे। भले ही उन्हे कामर्स, इंजिनियरिंग, मेड़िकल में प्रवेश नहीं मिलता था,
लेकिन मास्टर छड़ी राम बीए, एम ए, एल एल बी तो हो ही जाते थे। डिग्रियों की एक तख्ती उनके घर के सामने टंग ही जाती थी। ब्याह के लिए अच्छे रिस्ते मिल ही जाते थे।
बोर्ड परीक्षा के परिणाम आने से पहले ही आत्म हत्या कर लेते हैं, कई परिणामों के बाद। वर्तमान में विद्यार्थियों में एक भय परिक्षा परिणामों के प्रतिशत को लेकर भी होता है, अगर कम प्रतिशत मिले तो अच्छे स्कूल कालेजों में प्रवे्श नहीं मिलेगा।
पहले ऐसा नहीं था, प्रतिशत कम हो या ज्यादा जो पढना चाहता है उसे प्रवेश मिल ही जाता था और सभी पढाई कर लेते थे। भले ही उन्हे कामर्स, इंजिनियरिंग, मेड़िकल में प्रवेश नहीं मिलता था,
लेकिन मास्टर छड़ी राम बीए, एम ए, एल एल बी तो हो ही जाते थे। डिग्रियों की एक तख्ती उनके घर के सामने टंग ही जाती थी। ब्याह के लिए अच्छे रिस्ते मिल ही जाते थे।
एक वाकया बताता हूँ जिससे आपको उस वक्त के पालकों की मानसिकता का पता चल जाएगा। ताऊ मनफ़ूल का बेटा रमलु स्कूल से अपना रिजल्ट लेकर आया। ताऊ नीम के पेड़ के नीचे दो चार लोगों के साथ हुक्के के सुट्टे मार रहा था। रमलु दूर से ही चिल्लाया" बापु फ़स्ट डिवीजन आया सै।" ताऊ बोल्या-" सुसरे पहले यो बता के तु पास हुआ के नहीं, तेरी फ़स्ट डिवीजन तो मैं पाच्छै देखुंगा।" इससे ये पता चलता है कि पहले पास होने का महत्व डिवीजन पाने से ज्यादा था।
अब परिस्थितियां बदल गयी है। पालकों को मालूम है कि उनका बच्चा पास तो हो जाएगा लेकिन वे उसके डिवीजन को लेकर चिंतित रहते हैं उनके कुल अंकों के प्रतिशत को लेकर चिंतित होते हैं। बस यहीं पर बचपन खो जाता है और जीवन भर नहीं मिलता। फ़िर कभी नहीं मिलता ।
आवश्यकता है आज बचपन को बचाने की। चाहे बच्चे के नम्बर और प्रतिशत कम हो जाएं लेकिन ध्यान रहे उनका शारीरिक और मानसिक विकास बाधित न हो पाए। वे मानसिक रुग्णता के शिकार न हो पाएं, इसलिए आइए संकल्प लें बचपन बचाएं.........बचपन बचाएं.........बचपन बचाएं और .........बचपन बचाएं।
अब परिस्थितियां बदल गयी है। पालकों को मालूम है कि उनका बच्चा पास तो हो जाएगा लेकिन वे उसके डिवीजन को लेकर चिंतित रहते हैं उनके कुल अंकों के प्रतिशत को लेकर चिंतित होते हैं। बस यहीं पर बचपन खो जाता है और जीवन भर नहीं मिलता। फ़िर कभी नहीं मिलता ।
आवश्यकता है आज बचपन को बचाने की। चाहे बच्चे के नम्बर और प्रतिशत कम हो जाएं लेकिन ध्यान रहे उनका शारीरिक और मानसिक विकास बाधित न हो पाए। वे मानसिक रुग्णता के शिकार न हो पाएं, इसलिए आइए संकल्प लें बचपन बचाएं.........बचपन बचाएं.........बचपन बचाएं और .........बचपन बचाएं।
हमारे गाँव का द्रश्य दिखा दिया आपने ! शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंबहुत सही समय पर और प्रेरक पोस्ट के लिये आभार
जवाब देंहटाएंप्रणाम स्वीकार करें
यहां आपके लिये एक पोस्ट है, आपको मजा आयेगा
जवाब देंहटाएंप्रणाम
बहुत सही समय पर और प्रेरक पोस्ट के लिये आभार
जवाब देंहटाएंअजी पहले के पढो मै ओर आज के पढो मै फ़र्क भी बहुत है, पहले रटा नही चलाता था छडी, थपपड ओर मुरगा ओर प्यार चलता था, शिष्य ओर गुरु का एक अलग रिस्ता होता था, आंखो मै शर्म, मन मै इज्जत ओर मान होता था गुरु के मन मै प्यार होता था, लेकिन आज सब बदल गया है.पहले बच्चे स्कुल के बाद खुब खेलते थे मेदान मै जा कर, सब बच्चो मओ कोई भेद भाव नही होता था अमीर गरीब का.....
जवाब देंहटाएं:) sahi farmaya aapne .
जवाब देंहटाएंसही है! आज की पढ़ाई ने बच्चों के बचपन को छीन लिया है।
जवाब देंहटाएंहा हा हा ! ललित भाई हरियाणा में तो एग्जाम के दिनों में किसी से पूछो कि भाई कहाँ जा रहे हो तो ये नहीं कहेगा कि बच्चे को एग्जाम दिलाने ले जा रहा हूँ । वो कहेगा --नक़ल कराने जा रहा हूँ । और एग्जामिनेशन सेंटर का नज़ारा भी अद्भुत होता है । जितने छात्र , उनसे ज्यादा नक़ल कराने वाले । मेला सा दिखाई देता है ।
जवाब देंहटाएंबचपन दुनिया की सबसे बडी नियामत है, अगर यह बच जाए, तो पूरा राष्ट्र बच जाएगा।
जवाब देंहटाएंएक नाइयों का लड़का था, (लड़का एक था, नाइयों का), ठीक है भाई हो सकता है। बाकी आज बचपन से ही हम बच्चों को कुंठित कर रहे हैं यह सौ फीसदी सही है। बचपना गायब है। तभी तो नृत्य संगीत मे भी छोटे छोटे बच्चे वयस्कों के गानों पर थिरकते हैं। "ब्लॉगवाणी' विलुप्त हुई, लग नही रहा, हरा भरा सा" शीर्षक के अन्तर्गत लिखी
जवाब देंहटाएंएक छोटी रचना पर ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा:- ड्राइंग रूम में बैठ कर देखने लगा दूर दर्शन
कार्यक्रम चल रहा था जिसमे बच्चों का नृत्य प्रदर्शन
नृत्य कर रहे थे झूम के, ये छोटे छोटे बच्चे
विषय 'विषय' था लग रहा, वयस्क भी खा जाएँ गच्चे. बहुत ही शानदार पोस्ट.
यादों को मानस में लाने के लिए धन्यवाद भाई, हम भी ऐसे ही किसी कस्बे में पढ़ते थे पूरे आठ किलोमीटर रोड विहीन रास्ते (गाड़ा रावन) से चलकर स्कूल जाते-आते थे, झोले में धी चुपड़े चावल की अंगाकर रोटी के डब्बे के साथ.
जवाब देंहटाएंआपका वो नाउ यदि मैं जिसे समझ रहा हूं वही है तो, अभी दुखी है कारन इसलिए कि उसको जो आबादी की जमीन मिली थी उसे किसी नें हड़प लिया है सही क्या है आप जानते होगें. बाजार में ठेले पर दुकान लगाता है. :)
जो बचपन हमने बिताया .. वो आज के बच्चों को कहां मिल पाता है ??
जवाब देंहटाएंsahi kaha aapne aaj kal ke bachche "dabba band bachpan "ji rahe hai,isme hamare samy jaise "taaze bachpan" ka swad kaha?
जवाब देंहटाएंबहुत ही ग़ज़ब की पोस्ट...
जवाब देंहटाएंहम जापानियों का बचपन बहुत लम्बा है। आजकल काई लोग विश्वविद्यालय की पढ़ाई पूरा करने के बाद भी नौकरी न मिलने से माता-पिता से खिलाए जाते हैं।
जवाब देंहटाएंumda post
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