बुधवार, 7 जुलाई 2010

नाई, दाढी और सड़क की हजामत

कहते हैं औरत के सोलह शृंगार (नख से शिख तक) और पुरुषों का एक ही शृंगार, सिर्फ़ क्षौर कर्म याने दाढ़ी और सिर के बाल काटना। मर्दों के शृंगार करने के लिए प्राचीन काल की सामाजिक व्यवस्था में एक जाति नियुक्त की गयी थी, जिसे नाई कहा जाता है।

नाई का संबंध समाज के साथ जन्म से मृत्यु तक जुड़ा हुआ है। हिंदु समाज में इनके बिना कोई भी मांगलिक कार्य और मृत्यु से संबंधित कार्य नहीं होता है। इनका सीधा जुड़ाव जजमान के खानदान से होता है।

मेरे जन्म के समय जिस नाई ने मेरा मुंडन किया था, अब उसके पुत्र ने मेरे पुत्र का मुंडन किया। कई पीढियों से हमने नाई नहीं बदला और उसने भी जजमान नहीं बदला। इस तरह यह संबंध सतत चला आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा।

नाई को हमारे यहां ठाकुर भी कहा जाता है और हम भी उन्हे सम्मान देते हैं गांव के रिश्ते से काका, बाबा, भैया इत्यादि सम्बोधित करते हैं।

वर्तमान में सेलुन खुल गए हैं, ब्युटी पार्लर के नाम से अब सभी जातियाँ बेधड़क इस कार्य को कर रही हैं। पहले गांव में नाई सप्ताह में दो दिन या एक दिन आता था और पुरे गांव की दाढी और बाल काटता था। इसके एवज में पारिश्रमिक स्वरुप उसे धान (फ़सल जो उस इलाके में होती हो) और नगद पैसा सालाना दिया जाता था जिससे उसका जीवन यापन होता था।

बाल काटने के अलावा छट्ठी, विवाह, मृत्यु, कथा पूजा इत्यादि अवसर पर अतिरिक्त आय हो जाती थी। शादी में पत्तल दोना, पुजा में हवन से संबंधित व्यवस्था इत्यादि भी करनी पड़ती थी। धीरे-धीरे समाज में जागरुकता आई, नयी पीढी ने सेलुन खोल लिए, घर-घर जाकर काम करना बंद कर दिया ।

अब जिसे भी बाल कटाना है या दाढी बनाना है सेलुन में जाना पड़ेगा, और नगद पैसा भी देना पड़ेगा। क्योंकि सेलुन में क्रीम पाउडर, फ़िटकरी लगा कर काम होता है।
एक बार की आप बीती सुनिए, बात सन् 1985 की है, बि्लासपुर में राज्य स्तरीय व्हालीबॉल प्रतियोगिता का आयोजन हुआ, इसमें रायपुर संभाग की टीम में मेरा भी चयन हुआ था।

हमें बि्लासपुर के लाल बहादुर शास्त्री स्कूल में ठहराया गया था। शास्त्री स्कूल के पीछे अरपा नदी है और सामने कोतवाली। एक दिन हमारा मैच सीएमडी कालेज में दोपहर एक बजे से था। मेरी दाढी बढ गयी थी, मेरे पास सेविंग का सामान नहीं था।

हमारे साथ के कुछ लड़के ब्लेड चलाने में इतने कुशल थे कि बिना रेजर के सिर्फ़ को्री ब्लेड़ से ही अपनी दाढी स्वयं बना रहे थे। देख कर मुझे आश्चर्य हुआ, थोड़ी सी चूक से कहीं से भी कटना लाजमी था। एक कहा भी कि "आ यार तेरी दाढी भी बना देता हूँ", लेकिन बिना रेजर की कोरी ब्लेड़ देखकर मैने मना कर दिया।

फ़ोटो रतनसिंग जी के सौजन्य से
दूसरे दिन मै सेलुन ढूंढने लगा तो आस पास में नहीं दिखा, कोतवाली के सामने एक बाबा बोरी बिछाकर अपने सामान का डिब्बा लेकर बैठा था, मेरे साथी ने कहा कि यार ये तो रहा सेलुन, सिर्फ़ कुर्सी और छत ही तो नहीं है बाकी तो सब है।

न चाह कर भी मैं बोरी पर बैठ गया। अब बाबा ने अपनी पेटी खोली तो सारे औजार बाबा आदम के जमाने के विरासत में मिले हुए दिख रहे थे। पेटी में था साबुन का डिब्बा, एक ब्रश जिसके बाल नीचे की ओर मुड़ कर एक शानदार गुड़हल के फ़ूल की शक्ल ले चुके थे,

एक उस्तरा, एक उस्तरा धार करने का सान पत्थर और चमड़े का पट्टा (जिस पर उस्तरे की धार चमकाई जाती थी) बोरी पर बैठते ही नाई बाबा ने चश्मा ठीक करके एक छोटा सीसा मेरे हाथ में पकड़ा दि्या फ़िर पहले तो ब्रश के मुंह पर साबुन घिसा और जैसे ही मेरी दाढी पर ब्रस फ़ेरी तो ऐसा लगा कि किसी ने आंगन बुहारने वाली कांटे की झाड़ू फ़ेर दी हो।

बस उसने तो घिस कर ही रख दि्या और जब बाबा आदम के जमाने उस्तरा फ़ेरा तो दर्द के मारे आंखों से आंसु तो नहीं टपका पर कसर भी नहीं रही। 
जैसे तैसे दाढ़ी बनवा के दो रुपए दिए और उससे पिंड छुड़वाया। लेकिन पूरी दाढी में दर्द हो रहा था मैं उस घड़ी को कोस रहा था, जिस घड़ी उस नाई बाबा की बोरी पर जाकर बैठा था।

उस दिन हमने उसे नाम दिया सिट डाउन ओपन हेयर कटिंग सेलून। फ़िर कभी आज तक ऐसे गलती दुबारा नहीं की।

जब भी मुझे उस दिन की याद आती है तो आज भी दाढी में वह पुराना दर्द उभर आता है, जैसे किसी ने उस्तरे से खाल उधेड़ कर रख दी हो। इस दर्द ने मुझे दुबारा इस तरह की गलती नहीं करने दी।

आज भी इस तरह के ओपन हेयर कटिंग सेलुन मौजुद हैं, इनके भी परमानेंट ग्राहक हैं। थोड़ा सा स्वरुप बदला है, बोरी की जगह स्टूल आ गया है। यहां सस्ता-सुंदर और टिकाऊ काम होता है, तसल्ली की पूरी गारंटी है।

रविवार 4 जुलाई को मैं रायपुर रेल्वे स्टेशन पहुंचा तो मुझे एक सेलुन दिख ही गया, पुरानी याद ताजा हो गयी।  कोतवाली के सामने के नाई बाबा का पच्चीस साल पुराना चित्र मेरी जेहन में किसी फ़िल्म सा चल पड़ा।

मैने उसके चित्र लिए, कुछ देर खड़ा होकर देखता रहा, एक आदमी मजे से स्टूल पर बैठ कर अपनी शकल सुधरवा रहा था।

24 टिप्‍पणियां:

  1. देसी ठसक है .. मूछों की लहक है .. आम जन की महक है ..
    और क्या चाहिए ... एक में काफी कुछ ... सुन्दर प्रविष्टि !

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  2. सिट डाउन ओपन हेयर कटिंग सेलून
    -हा हा! क्या क्या करते रहते हो भाई... :)

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  3. "सिट डाउन ओपन हेयर कटिंग सेलून"

    क्या कहने.......................... बहुत ही बढ़िया किस्सा सुनाया आपने !

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  4. नई पीढ़ी भी जानेगी , क्या होता है - था ये सिट डाऊन ओपन हेयर कटिंग सैलून । पढ़ कर अच्छा लगा । बधाई।
    आशुतोष मिश्र

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  5. नई पीढ़ी भी जानेगी , क्या होता है - था ये सिट डाऊन ओपन हेयर कटिंग सैलून । पढ़ कर अच्छा लगा । बधाई।
    आशुतोष मिश्र

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  6. यह स्टूल पर तो बैठता है हमारा जयनारायण नाइ तो जमीन पर बैठा कर बाल काटता है
    फोटो मेल कर रहा हूँ इस पोस्ट पर लगाकर अपडेट कर देना

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  7. सैलून का नाम खूब दिया है....अच्छा संस्मरण

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  8. रोचक किस्सा है, मजा आया पढकर
    आजकल तो बनिया भी सैलून खोल कर बैठे हैं जी
    अच्छी पोस्ट

    प्रणाम

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  9. महाराज, रायपुर के बूढ़ा गार्डन के गेट पर अभी भी "सिट डाउन हेयर कटिंग सेलून" है, कभी वहाँ की सेवाओं का भी लाभ उठा कर देखें। :)

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  10. @जी.के.अवधिया
    बुढा तालाब (गार्डन) के सेलुन हां डोकरा मन बर हवे।

    नवयुवा काल में बनाए रहें दाढी
    त अभी तक ले पिरावत हे दाढी।

    जोहार ले

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  11. इस सिट डाउन ओपन हेयर कटिंग सेलून की सेवायें हमने अपने ग्राम्‍य जीवन में प्रत्‍येक सप्‍ताह लिया है क्‍योंकि धुर गांवों में अब भी सिट डाउन स्‍टूल सेलून नहीं खुल पाये हैं. आपने जिन औजारों की बात कही है उन्‍ही दाढ़ी पिरावन औजारों को सहते आये हैं. :)

    आपकी लेखन शैली नें इस वाकये को इतना सुन्‍दर पोस्‍ट बना दिया, ब्‍लॉग का सार्थक प्रयोग. धन्‍यवाद भाई.

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  12. मस्त नाम है सैलून का :) मजेदार संस्मरण.

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  13. आ हा हा
    दिल्ली में शाहदरा में नाई सिर के बाल काटने और दाढी बनाने के चालीस रुपये ले लेता है। बगल दिखाओ तो कहता है कि दस रुपये और।
    जबकि अपने गांव का नाई। दस रुपये में सब-कुछ सफाचट। किसी भी स्टाइल में कटाओ।

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  14. हम ने तो आज तक नाई से शेव नही बनवाई अजी डर लगता है, जब गले के पास उस्तरा आता है, वो गलती ना भी करे लेकिन हमी गलती कर बेठे तो कोन गया जान से, ना बाबा ना हम तो अपने मुलायम मुलायम गाल खुद ही खुरच लेते है जी, हम तो ना जाये इस सिट डाउन ओपन हेयर कटिंग सेलून मै भुल से भी चाहे दाडी सरदारो से भी लम्बी हो जाये. धन्यवाद डराने के लिये

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  15. हा हा हा ! सिट डाउन ओपन एयर हेयर कटिंग सैलून । यहाँ फैशन के बाल काटे जाते हैं ।
    पर हमने कभी नहीं कटवाए ।
    अब कटवाने को है ही क्या ।

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  16. अपनी रामकहानी को आपने बहुत ही बढिया रोचक तरीके से प्रस्तुत किया! आनन्द आया भाई पढकर.....

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  17. घुटने से सर दबा के जब नाई दादा पत्थर पे अस्तुरा घीस के कलम निकालते थे ठंडी के भुनसारे में हालत खराब हो जाती थी
    याद दिला दिये वो दिन

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  18. महराज पाय लागी। हा हा हा हा हा………मैं जब अपन ममा मेर रहिके खैरागढ़ तीर पाड़ादाह गांव मा प्रायमरी अउ मिडिल के पढ़ाई करत रेहेंव त घर मा राधे नाऊ ल बला के मूड़ी के चूंदी ल कटवावन ओही सिट डाउन हेयर कटिंग सेलून के स्टाइल मा। बने करे, सुरता देवा दे। अउ सबले बड़े बात सुरता देवाय के तरीका। कउन बिन तारीफ करे रइही गा। अब भार वार नैइ डारंव धनबाद ले चलथ हौं। माने धन्यवाद अउ बधाई घलो।

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  19. मज़ा आया पुरानी यादें ताज़ी होते देख ...
    हम तो गंगा किनारे के रहवैया हैं ... उहाँ तो गंगा किनारे लाइन लगा के ईंटा पे नाऊ लोग बैठे रहते हैं ... घुटनों के बीच मुंडी दबा के बच्चों को मूंड़ना उनका मुख्य काम है लेकिन अच्छों अच्छों की हजामत भी खूब बनाते हैं ... हम उन्हें इटालियन(ईंट वाला) सैलून कहते हैं ...
    पुराने समय मे ठाकुरों(राजपूतों) के साथ नाई की उपस्थिति उनके पी ए के रूप मे निरंतर इस कदर होती थी कि कालान्तर मे लोग उन्हें नाऊ-ठाकुर कहने लगे( केवल हिंदू नाई को)
    रोचक और मज़ेदार जानकारी का शुक्रिया

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  20. भाईजी ललित शर्माजी
    आपका भी जवाब नहीं !
    वाकई क्रिएटिव माइंड हैं !
    कोई विषय छू'लें , रोचक बना देने की तो गारंटी रखते हैं ।

    सलाम है आपको और आपकी लेखनी को !

    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं

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